SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ वक्रोक्तिजीवितम् के उत्सव के प्रसंगों में वह ( चन्द्रमा) अद्वितीय राजच्छन की तरह आचरण करने लगता है ।। ७४ ॥ अत्र सुब्धातुवृत्तः समासवृत्तेश्च किमपि वक्रतावैचि व्यं परिस्फुरति । यहाँ सुब्धातुवृत्ति तथा समासवृत्ति की वक्रता की कोई ( असाधारण) विचित्रता परिलक्षित होती है। एवं वृत्तिवक्रतां विचार्य पदपूर्षिभाविनीमुचितावसरां भाववक्रतां विचारयति । इस प्रकार वृत्तिवक्रता का विवेचन कर पदों के पूर्वाद्ध में स्थित होने वाली एवं अवसरप्राप्त भाववक्रता' का विवेचन करते हैं साध्यतामप्यनादृत्य सिद्धत्वेनाभिधीयते । या भावो भवत्येषा भाववैचित्र्यवकता ॥२०॥ यहाँ पर भाव अर्थात् क्रिया रूप धातु के अर्थ को ( अपनी) साध्यता की भी अवहेलना करके सिद्ध रूप में प्रतिपादित किया जाता है वहां यह 'भाववैचित्र्यवक्रता' होती है ॥ २० ॥ कृषा वणितस्वरूपा भाववैचित्र्यवतका भवत्यस्ति। भावो धात्वर्थरूपस्तस्य वैचित्र्यं विचित्रभावः प्रकारान्तराभिवानश्यतिरेकि रामणीयकं तेन वक्रता वक्रत्वविच्छित्तिः। कीदृशी-यत्र यस्यां भावः सिद्धत्वेन परिनिष्पन्नत्वेनाभिधीयते भण्यते। कि कृत्वासाध्यतामप्यनादृत्य निष्पाद्यमानतां प्रसिद्धामप्यवधीर्य । तदिदमत्र तात्पर्यम्-यत् साध्यत्वेनापरिनिष्पत्तः प्रस्तुतस्यार्यस्य दुर्बलः परिपोषः, तस्मात् सिद्धत्वेनाभिधानं परिनिष्पन्नत्वात्पर्याप्त प्रकृतार्थपरि-. पोषमावहति । यथा यह जिसके स्वरूप का वर्णन किया गया है भाववैचित्र्यवक्रता होती है। भाव का अर्थ है धात्वर्थ का रूप अर्थात् क्रिया, उसका वैचित्र्य अर्थात् विचित्रता दूसरे ढङ्ग से प्रतिपादित होने के कारण अतिशययुक्त सुन्दरता, उसके कारण जो वक्रता अर्थात् बांकपन की शोभा होती है ( उसे भाववैचित्र्यवक्रता कहते हैं ) । ( वह भावविश्यवक्रता होती) कैसी हैजहाँ अर्थात् जिस ( वक्रता ) में धात्वर्थ रूप क्रिया को सिद्ध रूप में पूरी तरह से निष्पन्न रूप से कहा जाता है। क्या करके-साध्यता का भी अनादर
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy