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________________ द्वितीयोन्मेषः २३७ यहां 'अधिमधु' शब्द में ('मधौ इति अधिमधु' इस प्रकार का 'अव्ययं विभक्ति' इत्यादि पा० २।१।६ से ) विभक्ति अर्थ में किया गया (अव्ययीभाव) समास समय का प्रतिपादक होते हुए भी विषय सप्तमी का बोध कराता हुआ 'नवरस' शब्द की श्लेष की शोभा के अधिगत होने से उत्पन्न विचित्रता को उन्मीलित करता है। इस (अव्ययीभाव समास रूप ) वृत्ति के बिना भी दूसरे ढङ्ग से विरचित होने पर विषय का ज्ञान हो जाने पर भी उस प्रकार काव्यमर्मज्ञों के लिये आनन्द नहीं उत्पन्न हो सकेगा। उत्त, परिमल, स्पन्द एवं सुभग शब्दों की 'उपचारवक्रता' तो साफ-साफ झलकती दिखाई देती है । और जैसे ( इसी का दूसरा उदाहरण) प्रा स्वर्लोकादुरगनगरं नूतनालोकलक्ष्मीमातन्वद्भिः किमिव सिततां चेष्टितैस्ते न नीतम्। अप्येतासां दयितविहिता विद्विषत्सुन्दरीणां यैरानीता नखपदमया मण्डना पाण्डिमानम् ॥७३॥ देवलोक से नागलोक पर्यन्त अपूर्व प्रकाश की कान्ति को बिखेरने वाले आपके कार्यों ने किसे नहीं सफेद बना दिया ( अर्थात् सभी को सफेद बना दिया, और यहां तक कि आपके ) दुश्मनों की इन पत्नियों के अपने पतियों द्वारा विलिखित नखचिवों वाले आभूषण को भी सफेद (पाण्डुवर्ग ) का बना दिया है ।। ७३ ॥ अत्र पाण्डुत्व-पाण्डुता-पाण्डुभाव-शब्देभ्यः पाण्डिम-शब्दस्य किमपि वृत्तिवैचित्र्यवक्रत्वं विद्यते । यथा च ग्रहाँ पाण्डुत्व, पाण्डुता अथवा पाडुभाव शब्दों की अपेक्षा पाण्डिम शब्द की कोई अपूर्व ही वृत्तिवैचित्र्य वक्रता नजर आती है। तथा जैसे ( इसी का तीसरा उदाहरण) कान्तत्वीयति सिंहलीमुखरुचां चूर्णाभिषेकोल्लसल्लावण्यामृतवाहिनिझरजुषामाचान्तिभिश्चन्द्रमाः । येनापानमहोत्सवव्यतिकरेष्वेकातपत्रायते देवस्य त्रिदशाधिपावधि जगज्जिष्णोर्मनोजन्मनः ॥७४॥ चूर्णाभिषेक के कारण विलसित होते हुए सौन्दर्यामृत का वहन करने वाले निर्झरों का सेवन करनेवाली सिंहलियों के मुख की कान्ति का आचमन क र-करके चन्द्रमा (ऐसी) मनोहारिता को प्राप्त कर लेता है जिसके कारण देवराज इन्द्र तक के लोक को जीतने की इच्छा वाले कामदेव की पानगोष्ठियों
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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