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________________ १७८ वक्रोक्तिजीवीतम् .. . हैं -(क) आदि शब्द से त, ल एवं न से भिन्न भी छ, ध आदि वर्गों का ग्रहण होता है। तथा (२) द्वित्व से यहाँ उसी वर्ण का द्वित्व ही नहीं अभिप्रेत है अर्थात् छ के साथ छ का ही द्वित्व हो ऐसा विधान नहीं । अपितु उस वर्ण का उच्चारण द्वित्व की भाँति होना चाहिए। जैसे जब हम 'कन्दच्छेदच्छवि:' का उच्चारण करते हैं तो हमारा उच्चारण एसा होता है मानों कन्दछ्छेदछछविः' का उच्चारण किया जा रहा है इस प्रकार सुनने में एक अपूर्व आनन्द की उपलब्धि होती है। इसलिये यह वर्गविन्यासवक्रता के दूसरे भेद के रूप में उद्धत हुआ है। (वर्गविन्यासवक्रता के ) तृतीय भेद ( र आदि से संयुक्त शेष वर्गों की पुनः पुनः आवृति ) का उदाहरण इसी (प्रथममरु णच्छायः ॥ ६ ॥ श्लोक) का तृतीय चरण है। टिप्पणी-इसका तृतीय चरण निम्न है:-- ___प्रसरति ततो ध्वान्तक्षोरक्षमः क्षणदामुखे ।। यहाँ भी र आदि से ष आदि का भी ग्रहण होता है। इसी लिये यहाँ पर क् एवं ष् के संयुक्त रूप (क्ष ) का तीन बार प्रयोग होने से इसे वर्गविन्यासवक्रता के तीसरे भेद के उदाहरण रूप में उद्धत किया गया है। ___आचार्य विश्वेश्वर जी ने इस उदाहरण को व्याख्या करने में पुनः इसी उन्मेष के तीसरे उदाहरण को व्याख्या वाली भूल को है। उन्होंने 'प्र' और 'ध्व' में भी वक्रता दिखाने का असफल प्रयास किया है जिनको कि एक बार भी आवृत्ति नहीं हुई है। यथा वा___ सौन्दर्यवर्ष स्मितम् ॥ ७ ॥ यथा च'करार'-शब्दसाहचर्येग 'ह्लाद'-शब्दप्रयोगः । अथवा जैसे ( इस तृतीय भेद का दूसरा उदाहरण पूर्वोदाह । २।१ श्लोक के प्रथम चरण का अन्तिम भाग-) सौन्दर्यधुर्य स्नितम् ।। ७ ।। (यहाँ य का र् के साथ सयुक्त रूप में दो बार प्रयोग हुआ है) अतः तृतीय भेद के उदाहरण रूप में उद्धृत किया गया है । और जैसे 'कलार' शब्द के साथ 'लाद' शब्द का प्रो।। अयोद यहाँ पर .ल के साथ ह का संबोग दो बार आवृत होकरीसरे वर्ग-विन्यास-चक्रता के भेद का उदाहरण बन जाता है ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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