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________________ १७६ वक्रोक्तिजीवितम् प्राय यही है कि (केवल वर्गों की अनुरूपता ( लाने ) के चश्के से ही उपनिबद्ध किये गये, (वर्ण जो कि ) प्रस्तुत (वस्तु के अनुरूप न होने से उसके) औचित्य को दूषित करने वाले ( हैं उनका प्रयोग ) नहीं अभीष्ट है । (अर्थात रस से अनुकूल ही वर्गों का प्रयोग करना चाहिए न कि शृङ्गार आदि कोमल रसों के प्रसंग में भी 'टकारादि' कठोर वर्गों का विन्यास । हाँ ) कही कहीं (रोद्रादि ) पुरुष रसों का प्रकरण होने पर ( कवि अथवा सहृदय) उसी प्रकार के कठोर वर्गों को पसन्द करता है । ( क्यों कि वहां पर वे कठोर वर्ण उस पुरुष रस के औचित्य के अनुरूप होने से अत्यन्त ही शोभित होते हैं )। अथ प्रथमप्रकारोदाहरणं यथा उन्निद्रकोकनदरेणुपिशङ्गिताङ्गा गुजन्ति मजु मधुपाः कमलाकरेषु । एतच्चकास्ति च रवेनेवबन्धुजीव पुष्पच्छदाभमुदयाचलचुम्बि बिम्बम् ।। ३॥ अब पहले ( अपने वर्ग के अन्त से संयुक्त स्पर्श वर्णो की पुनः पुनः आवृत्ति रूप ) भेद का उदाहरण ( देते हैं । जैसे विकसित लाल कमलों की पुष्पधूलि से पीत वर्ण हो गए अंगों बाने 'भ्रमर कमलों के उद्भवस्थानों (अर्थात् तालाबों) में मनोहर गुखार कर रहे हैं। एवम् उदयागिरि का चुम्बन ( स्पर्श ) करने वाला तथा नवीन बन्धुजीव ( जपाकुसुम ) के पुष्प पटल के सदृश कान्ति वाला (लाल वर्ण का ) यह सूर्य मण्डल प्रकाशित हो रहा है ।। ३ ॥ टिप्पणी-उक्त श्लोक में पिशङ्गिताङ्गा, गुञ्जन्ति मञ्जु, चुम्बि एवं बिम्बम् में क्रमशः स्पर्श वर्ण ग, ग, ज, ज, यथा ब एवं ब अपने वर्ग के अन्तिम चों से संयुक्त होकर दो दो बार आवृत्ति हुए हैं। अतः यह वर्णविन्यासवक्रता के पहले भेद का उदाहरण हुआ। यहां आचार्य विश्वेश्वर जी ने उनिंद्र एवं बन्धु शब्द को भी उद्धृत किया है शायद विवेचन करते समय वे 'पुनः पुनर्बध्यानाः' नियम को भूल गये थे। क्योंकि इन दो पदों में प्रयुक्त 'न' एवं 'न्ध' की पुनरावृत्ति ही नहीं होती है। यथा च कदलीस्तम्बताम्बूल जम्बूजम्बीराः इति ॥ ४ ॥ और जैसे (इसी का दूसरा उदाहरण पूर्वोदाहृत २२ पब 'भग्नला• बल्लरीका' के प्रथम चरण का उत्तरार्ध)
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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