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________________ १७४ वक्रोक्तिजीवितम् इलायची की मंजरियों को तोड़ देने वाली, केलों के धौदों, पान जामुन तथा नींबुओंको चञ्चल बना देने वाली ताड़, ताड़ी, एवं बहुत ही सरल लताओं को लास्य कराने वाली, स्ठती हुई लहरों के विलास के खण्डित करने के कारण ठंढी हवायें, समुद्र के किनारे के कछारों में जिसकी सेना की स्त्रियों की निरन्तर सम्भोगजन्य थकावट को दूर कर देती थी। टिपप्णी-उक्त पद्य में कुस्तक ने वर्णविन्यासवक्रता के तीनों भेदों का उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनमें पहले भेद का स्वरूप जैसे- (अ) प्रथम चरण में 'ल' अकेले वर्ण का अनेक बार प्रयोग । (ब) तृतीय चरण में 'ल' ही अकेले वर्ण का चार बार प्रयोग । यथा ( स ) चतुर्थ चरण में केवल 'स' का ४ बार प्रयोग । दूसरे भेद का स्वरूप जैसे—(अ) द्वितीय चरण में 'ताल ताली' में । त एवं ल की दो बार आवृत्ति, (ब) तृतीय चरण में वेल्लकल्लोल में 'ल्ल' दो व्यञ्जनों की दो बार आवृत्ति तथा क्ल की 'कल्लोल' 'विसकलन' एवं कूल कच्छेषु में तीन बार आवृत्ति तथा (स) चतुर्थ चरण में 'रतरताभ्यास' में रत की दो बार आवृत्ति । ___तीसरे भेद का स्वरूप जैसे-(ब) प्रथम चरण के 'स्तम्भ ताम्बूल' में द म ब की एक साथ दो बार आवृत्ति तथा 'जम्ब जम्बारा' में ज् म् ब् की एक साथ दो बार आवृत्ति एवं (ब) द्वितीय चरण के 'सरलतरलता' में र् ल् त् की एक साथ दो बार आवृत्ति । इस प्रकार इस श्लोक में वर्णविन्यालवक्रता के तीनों भेदों के उदाहरण उपलब्ध हो जाते हैं। एतामेव वक्रतां विच्छित्त्यन्तरेण विविनक्ति वर्गान्तयोगिनः स्पर्शा द्विरुक्तास्त-ल-नादयः । शिष्टाच रादिसंयुक्ताः प्रस्तुतौचित्यशोभिनः ॥ २ ॥ ( अब ) इसी ( वर्णविन्यासवक्रता) की दूसरी विच्छित्ति से प्रतिपादित करते हैं-वर्ण्यमान वस्तु के औचित्य से शोभित होने वाले (१) ( अपने अपने) वर्ग में अन्त (अन्तिम वर्ण) से युक्त (क से म पर्यन्त के) स्पर्श ( वर्ण), (२) दो बार कहे गये (द्विरुक्त ) त, ल, एवं न आदि (वर्ग), एवं (३) र आदि ( वर्णी ) से संयुक्त शेष (सभी वर्ण पुनः पुनः बावृत्त होकर इस वर्णविन्यासवक्रता के, तीन अन्य भेद कर देते ) हैं ॥२॥ THAN
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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