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________________ द्वितीयोन्मेष १७३ जब एवकार का प्रयोग क्रिया के साथ होता है तो अत्यन्तायोग का व्यवच्छेदक होता है। जैसे 'नीलं कमलं भवत्येव' में अत्यन्तायोग का व्यवच्छेद है अर्थात् सभी कमल नीले होते हैं ऐसी बात नहीं और न कमल से भिन्न अन्य पदार्थ ही नीले न होते हों ऐसी भी बात नहीं है बल्कि कोई कोई कमल नीला होता हैं । इस अर्थ को एवकार प्रस्तुत करता है । यहाँ कुन्तक ने अयोग व्यवच्छेद बताया है अर्थात् व्यञ्जन बार बार उपनिबद्ध होकर ही वर्णविन्यास वक्रता को प्रस्तुत करते हैं। यत्रैकव्यजननिबद्धोदाहरणं यथा धम्मिल्लो विनिवेशिताल्पकुसुमः सौन्दर्यधुर्य स्मितं विन्यासो वचसां विदग्धमधुरः कण्ठे कलः पञ्चमः । लीलामन्थरतारके। च नयने यातं विलासालसं कोऽप्येवं हरिणीदृशः स्मरशरापातावदातः क्रमः ॥१॥ वहाँ ( उन तीन प्रकारों में से पहले प्रकार ) एक व्यञ्जन के द्वारा निबद्ध ( वर्ण विन्यास वक्रता ) का उदाहरण जैसे विशेष रूप से गुंथे गये पुष्पों से युक्त जूड़ा, सुन्दरता के बोझ का वहन करने वाली मुस्कान, कौशलपूर्ण एवं मनोहर वाणी का विन्यास, कण्ठ में मधुर एवं धीमा पञ्चम (स्वर), विलास के कारण सुस्त पुतलियों से युक्त नयन, हावभाव के कारण धीमी चाल, (इत्यादि) इस प्रकार का उस मृगाक्षी का मदन के वाणों के प्रहार से सुन्दर कोई अपूर्व ही ढङ्ग हो गया है ॥१॥ टिपप्णी -उक्त पद्य के प्रथम चरण में म्, ल , व् और य व्यञ्जनों का तथा दूसरे चरण में व् , स् , ध् एवं क् वर्णों का, तीसरे में ल , र, न, य एवं स् वर्णो का तथा चतुर्थ चरण में र, श्, एवं त् वणों का अलग-अलग अनेकधा विन्यास हुआ है। अतः यहाँ एक व्यञ्जन का पुनः पुनः विन्यासरूप वर्णविन्यास वक्रता का पहला भेद है। एकस्य द्वयोर्बहूनां चोदाहरणं यथा भग्नलावल्लरीकास्तरलितकदलीस्तम्बताम्बूलजम्बूजम्बीरास्तालतालीसरलतरलतालासिका यस्य जहुः। वेल्लत्कल्लोलहेला बिसकलनजडाः कूलकच्छेषु सिन्धोः सेनासीमन्तिनीनामनवरतरताभ्यासतान्ति समीराः ॥२॥ एक, दो एवं बहुत से वर्णों ( के अनेक बार विन्यास रूप वर्णविन्यास वक्रता के तीनों ही भेदों) का (एक ही) उदाहरण जैसे
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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