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________________ प्रथमोन्मेषः १४३ किया है जो एक लोकोत्तर वैचित्र्य के समर्थक हैं। अतः यहां माधुर्य गुण होगा। एवं माधुर्यमभिधाय प्रसादमभिधत्ते असमस्तपदन्यासः प्रसिद्धः कविवर्त्मनि । किश्चिदोजः स्पृशन् प्रायः प्रसादोऽप्यत्र दृश्यते ॥ ४५ ॥ इस प्रकार माधुर्य गुण को बताकर अब प्रसाद गुण का कथन प्रस्तुत करते हैं इस विचित्रमार्ग में विद्वानों ( कवियों) के मार्ग में प्रसिद्ध, कुछ-कुछ ओज का स्पर्श करता हुआ, समासहीन पदों की रचना रूप, प्रसाद नामक गुण भी प्रायेण देखा जाता है ॥ ४५ ॥ __असमस्तानां समासरहितानां पदानां न्यासो निबन्धः कविवमनि विपश्चिन्मार्गे यः प्रसिद्धः प्रख्यातः सोऽप्यस्मिन् विचित्राख्ये प्रसादाभिधानो गुणः किश्चित् कियन्मात्रमोजः स्पृशन्नुत्तानतया व्यवस्थितः प्रायो दृश्यते प्राचुर्येण लक्ष्यते । बन्धसौग्दर्यनिबन्धनत्वात् । तथाविधस्यौजसः समासवती वृत्तिः 'ओजः'-शब्देन चिरन्तनैरुच्यते । तदयमत्र परमार्थः-पूर्वस्मिन् प्रसादलक्षणे सत्योजःसंस्पर्शमात्रमिहा 'विधीयते । यथा असमस्त अर्थात् समास से वजित पदों का न्यास अर्थात् निबन्ध ( सङ्घटन ) जो कवियों के मार्ग में अर्थात् पण्डितों की पद्धति में प्रसिद्ध अर्थात् प्रकृष्ट रूप से ख्यातिप्राप्त है वह भी प्रसाद नाम का गुण इस विचित्र नामक ( मार्ग) में कुछ, थोड़ा-सा ओज का स्पर्श करता हुआ अर्थात् उत्तान ढङ्ग से ( कुछ-कुछ समस्त पदों से युक्त रूप में ) व्यवस्थित हुआ प्रायः दिखाई पड़ता है अर्थात् प्रचुर रूप से लक्षित होता है । उस प्रकार के ओज की समास से युक्त वृत्ति को, वाक्य-विन्यास ( सङ्घटना) की रमणीयता का कारण होने से चिरन्तन ( आलङ्कारिकों ) ने 'ओज' शब्द से व्यवहृत किया है। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि पहले ( सुकुमार मार्ग के गुणों का प्रतिपादन करते समय ३१ वीं कारिका में किए गए ) प्रसाद के लक्षण के विद्यमान रहने पर यहां (इस विचित्रमार्ग के प्रसाद गुण में ) केवल ओज के संस्पर्श का ही विधान किया जाता है । ( शेष लक्षण सुकुमारमार्ग के प्रसाद गुण जैसा ही है। अर्थात् यहां भी प्रसाद गुण रस एवं वक्रोक्ति विषयक अभिप्राय को अनायास ही प्रकट कर देने वाला एवं पढ़ते
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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