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________________ वक्रोक्तिजीवितम् अनेन सार्घ विहराम्बुराशेस्तीरेषु ताडीवनमर्म रेषु । द्वीपान्तरानीतलवङ्गपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भिः ॥३॥ ( इन्दुमती स्वयंवर के प्रसंग में कलिङ्ग-नरेश हेमाङ्गद का परिचय देते हुए सुनन्दा इन्दुमती से कहती है कि आप ) ताड़ी के जङ्गलों के मर्मर शब्दों से युक्त सागर के किनारों पर दूसरे द्वीपों से लवङ्ग पुष्पों की लाने वाली हवा के द्वारा पसीने की बूंदों को सुखाते हुए इस ( कलिङ्ग नरेश हेमाङ्गद ) के साथ विहार करें ॥ ८३ ॥ अलङ्कारव्यक्तिर्यथा-- बालेन्दुवक्राणि इति ॥२४॥ ( यहाँ पर भी प्रचुर समासों का अभाव इत्यादि प्रसाद गुण की समस्त सामग्री विद्यमान है। साथ ही 'अपाकृतस्वेदलवा के द्वारा जो सुरतजन्य वेद के कारण उत्पन्न हुए स्वेदकणों का संकेत किया गया है वह भी सुस्पष्ट है । इस प्रकार रसविषयक अभिप्राय व्यक्त करने के दो उदाहरण देकर ) अलंकार व्यक्ति ( का उदाहरण देते हैं ) जैसे बाल चन्द्रमा के समान टेढ़े..... इत्यादि पूर्वोक्त उदाहरण संख्या . ७५ पर उदाहृत पद्य है ।। ८४ ॥ ( इसका अर्थ वहीं देखें)। ( इस पद्य में समास के अभाव के साथ-साथ अर्थ की स्पष्टता आदि प्रसाद गुण की समग्र सामग्री की विद्यमानता के साथ-साथ 'नखक्षतानीव' से प्रयुक्त उपमालंकार बड़े ही रमणीय ढंग से व्यक्त हुआ है ) । एवं प्रसादमभिधाय लावण्यं लक्षयतिवर्णविन्यासविच्छित्तिपदसंधानसंपदा । । स्वल्पया बन्धसौन्दर्य लावण्यमभिधीयते ॥ ३२ ॥ ___ इस प्रकार (सुकुमार मार्ग के द्वितीयगुण ) प्रसाद का कथन कर (तृतीयगुण ) लावण्य को लक्षित करते हैं___अक्षरों की विचित्र संघटना की शोभा से ( लक्षित ) पदों की योजना की अत्यल्प संपत्ति से ( उत्पन्न शोभा द्वारा निष्पन्न ) वाक्य-रचना का सौन्दर्य 'लावण्य' नामक गुण कहा जाता है ॥ ३२ ॥ बन्धो वाक्यविन्यासस्तस्य सौन्दर्य रामणीयकं लावण्यमभिधीयते लावण्यमित्युच्यते । कीरशम्-वर्णानामक्षराणां विन्यासो विचित्रं न्यसनं तस्य विच्छित्तिः शोभा वैदग्ध्यभङ्गी तया लक्षितं पदानां सुप्तिस्न्ताना सन्धानं संयोजनं तस्य सम्पत् , सापि शोभैव,
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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