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________________ ७५ प्रथमोन्मेषः और जैसे ( दूसरा उदाहरण ) पाण्डुता में शरीर डूबा हुआ है ॥ ५३ ।। (यहाँ पर कवि यद्यपि 'पाण्डिम्नि' के स्थान पर 'पाण्डुतायाम्' इत्यादि अन्य शब्दों का प्रयोग कर सकता था किन्तु उसने 'इमनिच्' प्रत्ययान्त पाण्डु शब्द के प्रयोग से तद्धित वृत्ति का प्रयोग कर एक अलौकिक चमत्कार को उत्पन्न कर दिया है । अतः यह 'वृत्तिवैचित्र्यवक्रता' का दूसरा उदा. हरण है।) यथा वा सुधाविसरनिष्यन्दसमुल्लासविधायिनि । हिमधामनि खण्डेऽपि न जनो नोन्मनायते ।। ५४ ॥ अपनी सुधाधारा के प्रवाह से आह्लादित करने वाले खण्ड ( अपूर्व ) चन्द्र के भी ( उदित ) होने पर ऐसा कोई मनुष्य नहीं जो उत्कण्ठित न हो जाता हो ।। ५४ ॥ - अपरं लिङ्गवैचित्र्यं नाम पदपूर्वार्धवक्रतायाः प्रकारान्तरं दृश्ततेयत्र भिन्नलिङ्गानामपि शब्दायां वैचित्र्याय सामानाधिकरण्योपनिबन्धः । यथा (अब पदपूर्वार्द्धवक्रता के आठवें भेद का विवेचन प्रस्तुत करते हैं-) __'पदपूर्वार्द्धवक्रता' का अन्य ( अष्टम ) 'लिङ्गवैचित्र्य' नामक अवान्तर भेद दिखाई पड़ता है। जहां भिन्न-भिन्न लिङ्ग वाले शब्दों का चमत्कार की सृष्टि के लिए सामानाधिकरण्य से उपनिबन्धन किया जाता है ( वहाँ 'लिङ्गवैचित्र्यवक्रता' होती है । ) जैसे-- इत्थं जडे जगति को नु बृहत्प्रमाण कर्णः करी ननु भवेद् ध्वनितस्य पात्रम् ।। ५५ ।। ( यह श्लोक इसी ग्रन्थ के द्वितीय उन्मेष के उदाहरण-संख्या ३५ पर सम्पूर्ण रूप में उद्धृत हुआ है । इसका पदार्द्ध निम्न प्रकार है इत्यागत झटिति योऽलिनमुन्ममाय मातङ्ग एव किमतः परमुच्यतेऽसौ ।। अर्थात् ) इस प्रकार के जड़ संसार में वृहत्प्रमाण कानों वाले एवं सूडवाले (अथवा हाथ वाले, हाथी से बढ़कर ) दूसरा कौन ( मेरी) ध्वनि को सुनने में समर्थ हो सकता है ।। ५५ ।।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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