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________________ ७४ वक्रोक्तिजीवितम् यहां पर 'किमपि' इस पद के द्वारा उन ( मधुर अक्षरों ) के सुनने से उत्पन्न हृदय के चमत्कार की केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किए जानेवाली अनिर्वचनीयता को प्रतिपादित किया गया है । 'तानि' इस पद के द्वारा उस प्रकार के चमत्कार-पूर्ण अनुभव के कारण विशिष्ट रूप से स्मरण किए जाते हुए अक्षरों की अनिर्वचनीयता ज्ञात होती है। 'नाप्यर्थवन्ति' ( अर्थात् जो अर्थयुक्त नहीं थे ) इस पद के द्वारा अपने आप जानी जा सकने वाली शब्दों द्वारा प्रकट करने की असमर्थता का प्रकाशन किया गया है । और उन (अक्षरों) का 'न च योनि निरर्थकानि' ( अर्थात् जो निरर्थक भी नहीं थे) इस (विशेषण के प्रयोग ) से अलौकिक आनन्द को प्रदान करने के कारण उन अक्षरों की अर्थहीनता का निषेध किया गया है। ( इस प्रकार 'अक्षराणि' के ) इन तीनों ('तानि' 'नाप्यर्थवन्ति' 'न च यानि निरर्थकानि') विशेषणों में ( उन्हीं के प्रयोग द्वारा वाक्य में चमत्कार आने से ) 'विशेषणवक्रता' की प्रतीति होती है । इदमपरं पदपूर्वार्धवक्रतायाः प्रकारान्तरं सम्भवति वृत्तिवैचित्र्यवक्रत्वं नाम-यत्र समासादितवृत्तीनां कासाश्चिद् विचित्राणामेव कविभिः परिग्रहः क्रियते । यथा ___मध्येऽङ्करं पल्लवाः ।। ५२ ।। ( अब 'पदपूर्वार्द्धवक्रता' के सातवें भेद का विवेचन करते हैं ) यह 'वृत्तिवैचित्र्य वक्रता' नामक अन्य ( सातवां ) भेद सम्भव होता है । जहाँ पर प्राप्त ( अनेक-समास-तद्धित सुबादि ) वृत्तियों के मध्य से कविजन ( अपूर्व चमत्कार को उत्पन्न करने वाली) कुछ ही विचित्र वृत्तियों का प्रयोग करते हैं ( वहाँ 'वृत्तिवैचित्र्यवक्रता' होती है.) । जैसे अंकुरों के मध्य में पल्लव हैं ॥ ५२ ।। (यहाँ 'अंकुराणां मध्ये इति मध्येऽङ्करं' इस प्रकार अव्ययीभाव समास की वृत्ति के प्रयोग से कवि ने एक अपूर्व चमत्कार की सृष्टि की है जबकि यहाँ वह 'अंकुरमध्ये' इत्यादि के प्रयोग से तत्पुरुष समासवृत्ति का भी प्रयोग कर सकता था, किन्तु उसमें चमत्कार न आता । अतः यहाँ चमत्कार का कारण 'वृत्तिवैचित्र्यवक्रता' ही है । ) यथा च .. पाण्डिम्नि मम्न वपुः ।। ५३ ॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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