SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमोन्मेषः ४७. कारण इस प्रकार की बात ( कि तीन-चार पग चलकर ही श्रान्ति का अनुभव ) स्फुरित होते हुए भी ( उनके द्वारा ) कही जा सकती है ऐसा सहृदय अनुमान भी नहीं कर सकते। ( अर्थात् सीता जसी एक दृढ़ विचार वाली नारी जिसे कि वन की अनेकों कठिनाइयों की बात बताकर पति ने वन जाने से रोकने का प्रयास किया फिर भी वह पति से यह कह कर कि "मैं सभी कठिनाइयों को सह लूंगी पर आप अपने साथ अवश्य लेते चलिए" वन जाने के लिए तैयार हुई और वही दो-चार कदम चल कर ही ऐसा कहने लगें, यह बात सम्मव नहीं । ) और न तो 'क्षण-क्षण कहे जाने पर भी रामचन्द्र के पहले आँसुओं का ही प्रवाहित होना' यही बात भली प्रकार सङ्गति रखती है क्योंकि ( सीता के उस कथन के ) एकबार ही सून लेने से उस (अश्रुधारा ) की उपपत्ति हो जाने से । अतः अत्यन्त रमणीय होते हुए भी यह ( श्लोक ) कवि की थोड़ी-सी ही असावधानी से निन्द्य ( कथित ) हो गया है । अतः इस श्लोक में 'असकृत' के स्थान पर 'अवशम्' यह पाठ कर देना चाहिए। ( अर्थात् 'गन्तव्यमद्य कियदित्यवशं ब्रुवाणा' अर्थात् 'विवश होकर आज अभी कितनी दूर जाना है' ऐसा कहती हुई राम के अश्रओं को प्रवाहित किया । ऐसा पाठ कर देने से इसमें सहृदयहृदयहारिता आ जायगी। __ अतः ( काव्य में ) शब्द और अर्थ का इस ( उक्त ) प्रकार का विशिष्ट ही लक्षण उपादेय हैं । इसलिए 'नेयार्थक' 'अपार्थक इत्यादि ( काव्यदोष) दूर से उत्सारित हो जाने के कारण ( हटा दिये जाने के कारण ) अलग न कहे जाने चाहिए । ( अर्थात् जैसे शब्द और अर्थ हमने काव्य में स्वीकार किए हैं उनमें ये दोष ही हो नहीं सकते क्योंकि इन दोषों के रहने पर वे काव्यगत शब्द और अर्थ कहलाने के अधिकारी ही नही होंगे। एवं शब्दार्थयोः प्रसिद्धस्वरूपातिरिक्तमन्यदेव रूपान्तरमभिधाय न तावन्मात्रमेव काव्योपयोगि, किन्तु वैचित्र्यान्तरविशिष्टमित्याह उभावतावलंकारों तयोः पुनरलंकृतिः। वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभङ्गीभणितिरुच्यते ॥ १० ॥ इस प्रकार शब्द और अर्थ के ( लोक ) प्रसिद्ध स्वरूप से भिन्न ही दूसरे रूप को बताकर, केवल उतना ही काव्य के लिए उपयोगी नहीं है, अपितु अन्य वैचित्र्य से विशिष्ट ( शब्द और अर्थ का स्वरूप काव्य के लिए उपयोगी है ) यह बताने के लिए कहते हैं
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy