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________________ प्रथमोन्मेषः नहीं प्रदान किया ) यह पाठान्तर सरलता से हो प्राप्त हो सकता है। जो कि वाक्य का उपसंहार भी सामान्य ही अर्थ में करता हुआ सहृदयहृदयहारिता को प्राप्त करेमा ।) यत्र विशेषात्मना वस्तु प्रतिपादयितुमभिमतं तत्र विशेषाभिधा.. यकमेवाभिधानं निबग्नन्ति कवयः । यथा जहाँ वस्तु का विशेषरूप से ही प्रतिपादन करना ( कवियों को) अभिप्रेत होता है वहाँ कविजन विशेष का अभिधान करनेवाले ही शब्द का प्रयोग करते हैं। जैसे–महाकवि कालिदास ने कुमारसम्भव (५२७१ ) में पार्वती से भिक्षुरूपधारी शङ्कर द्वारा कहलवाया है किद्वयं गतं संप्रति शोचनीयतां समागमप्रार्थनया कपालिनः। कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्रकौमुदी ॥२०॥ ( एक तो) वह कलावान् (चन्द्रमा) की कान्तिमती कला और (दूसरी ) इस लोक के नेत्रों की कौमुदी तुम, दोनों इस समय ( उस) कपाली (शङ्कर) के समागम की प्रार्थना से शोचनीयता को प्राप्त हो गई हो ॥ २७ ॥ __ अत्र परमेश्वरवाचकशनसहरसंभवेऽपि कपालिन इति बीभत्सरसालम्बनविभाववाचक शब्दो जुगुप्यास्पदत्वेन प्रयुज्यमानः कामपि वाचकवक्रतां विदधाति । 'संप्रति' 'द्वयं चेत्वतीय रमणीयम्-यत् किल पूर्वमेका सैव दुर्य सनदूषितत्वेन शोचनीया संजाता, संपति पुनस्त्वया तस्यास्तथाविधदुरव्यवसायसाहायकमिवारम्पमित्युपहस्वते । 'प्रार्थना' शब्दोऽप्यतितरां रमणीयः, यस्मात् काकतालोययोगेन तत्समागमः कदाचिन्न वाच्यतावहः। प्रार्थना पुनरत्रात्यन्तं कोलोन कलकारिणी। इस पद्य में शङ्कर के वाचक ( पिनाकी बावि) सहस्रों शब्दों के सम्भव होने पर भी 'कपाकिनः' (कपाली की) यह बीमस्वरस के आलम्बन विभाव का वाचक शब्द घृणा के पात्र के रूप में प्रयुक्त होकर किसी (अनि वचनीय) शब्द की वक्रता को धारण करता है। (भाव यह है कि यहां भिक्षुवेषधारी शथर पार्वती के मन में शिव के प्रति मा पैदा कराना चाहते हैं अतः यदि यहाँ 'कमाली' के स्थान पर ये पिनाकी' आदि कहते तो यह घृणाभाव आना ही कठिन था। अतः कपाली कहकर शिष के पीमत्सर का चित्रण किया है। जो उन्हें मारा सिह रता है। वहीनीर
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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