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________________ * तारण-वाणी * [८७ निकालना पड़े, कि-हाय-हाय इन्हें दण्ड देने वाला कोई नहीं जो कि श्रावकों को बैल की भांति नचाकर अपना स्वार्थ साधे हैं। ___ इन भट्टारकों का इतिहास पढ़ो तब आंसू आ जाते हैं कि इन्होंने कैसी २ तरकीबों से प्रतिमाओं का चमत्कार दिखा कर श्रावकों को ठगा व विपरीत श्रद्धान में फंसाया, ये जन्त्र, मन्त्र विद्याओं में इतने प्रवीण थे कि बेचारे भोले श्रावक श्राविकाएँ फँस ही जाते थे, वे देखने भरके स्त्रीविहीन, बाकी तो उनके राजाओं जैसे वैभव थे। रेशमी जरी जरकस के किनारीदार उनके वस्त्र, मैकड़ों हथियार, म्याने. पालको, पहरेदार इत्यादि । श्रावकों को उनके म्याने पालकी में लगकर ले चलना पड़ता था व अँधश्रद्धालु श्रावक म्वयं लगते थे। कहां तो अपने जैनधर्म में गुरुओं का यह स्वरूप कि विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपो रक्तस्तपस्वी स: प्रशस्यते ॥ ___ कहां भट्टारक जैसे कुगुरुओं की इतनी मान्यता? उम ममय इनकी चलती कितनी न होगी जबकि विद्वानों का प्रभाव सा था। आज भी यदि उनका नमूना देखना है तो दक्षिण में मिलेगा। अभी भी म्याने पालकी में वे चलते हैं। मूलवद्री में जो रत्नों की प्रतिमा है, २७) देने पर उनका दर्शन कराया जाता है। जैनवद्री में भी रत्नों की प्रतिमा है, उनका बंधा नहीं, वे भट्टारक जी, धनी देन कर तय कर लेते हैं । तीर्थक्षेत्र कमेटी कई वर्षों से प्रयत्नशील है कि वहाँ के मन्दिर कमेटी के अधिकार में आजायें परन्तु सफलता नहीं पा रही है । मैं जब उनके पास ताइ-पत्र लिखे हुए ग्रंथों के देखने को गया तो ओन गुरु भट्टारक महोदय की साबुन सेफटोरेजर से दाढ़ी बन रही थी । दूसरे एक मन्दिर में एक मुनिराज विराजमान थे, जो मन्दिर के पास एक कमरा बनवा रहे थे। मैं अपने साथियों सहित उनके दर्शनों को गया तो धर्मोपदेश तो कुछ नहीं, हां चन्दा की लिस्ट मामने आ गई । मैंने कहा कि महाराज यह क्या ? बोले; परोपकार है परोपकार । धन्य है इस पञ्चमकाल के परोपकार करने वाले मुनियों को और हमारी मान्यता को। धर्मबन्धुओ ! यह जो कुछ भी दिग्दर्शन किया गया है, निन्दा की दृष्टि से नहीं, एकमात्र वस्तुस्वरूप को समझने और समझाने की दृष्टि से । ध्यान रखिये कि मैं अजन नहीं हूँ कि जो जैनधर्म के प्रति निंदा की भावना से कुछ भी लिखा हो, कंवल एक इस भावना से कि श्री जिनेन्द्र का शासन यथावत जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यादि महान् आचार्यों ने ग्रन्थों में बताया है उसे समझे और उस पर चलकर आत्मकल्याण करें । क्योंकि मैं इस बात को भलीभाँति जानता हूँ कि किसी एक व्यक्ति की निंदा करने में भी पाप का बंध होता है तो धर्म की निंदा करने में कितने महान् पाप का बंध न होता होगा । अत: जो कुछ भी लिखा है अथवा लिलूँगा एकमात्र जैनधर्म की पवित्रता के हेतु ही लिलूंगा। श्री जिनेन्द्रदेव इसके साक्षी हैं ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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