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________________ ८६] * तारण-वाणी जनाया है । आगे श्री कुन्दकुन्द स्वामी पांचवीं गाथा में कहें हैं कि- जे पुरुष सम्यक्तहीन हैं ते भले प्रकार उग्रतप कू आचारते हू बोधि कहिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी अपना म्वरूप ताका लाभ कू नाही पावें हैं। भावार्थ-हम कितने ही शास्त्र के ज्ञाता हों, कितना भी उप्र तप करते हों, परन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त किए बिना 'आत्मा' के स्वरूप को न जान सकेंगे, बिना प्रात्मस्वरूप के कदापि मोक्षमार्ग न बनेगा और हमारा संसार-भ्रमण न छूटेगा। सम्मत्तणाणदंसणबलबीरियवड्डमाण जे सव्वे । कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होति अइरेण ॥६॥ अर्थ-जे पुरुष सम्यक्त्व ज्ञान दर्शन बल वीर्य इनि करि वर्द्धमान हैं, अर कलि कलुष पाप कहिए इस पंचम काल के मलिन पाप करि रहित हैं ( निर्दोष हैं ) ते सर्व ही थोड़े ही काल में वर ज्ञानी कहिये केवलज्ञानी होय हैं। ___ भावार्थ--इस पंचमकाल में जड़ वक्र जीवन के निमित्त करि यथार्थ मार्ग अपभ्रंश (विपरीत) भया है, तिसकी वासना ते रहित भये जे जीव यथार्थ जिनमार्ग के श्रद्धान रूप सम्यक्त्व सहित ज्ञान-दर्शन अपना पराक्रम बलकू न छिपाय करि अर अपना वीर्य जो शक्ति ताकरि वर्द्धमान भये संते प्रवर्ते हैं ते थोड़े ही काल में हो केवलज्ञानी होय मोक्ष पावें हैं। जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य । __ एदे भट्ठविभट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ॥८॥ अर्थ-जे पुरुप दर्शन विर्षे भ्रष्ट हैं, बहुरि ज्ञान-चारित्र तें भी भ्रष्ट हैं ने पुरुष भ्रष्टनि विर्षे भी विशेष भ्रष्ट हैं, ते आपतो भ्रष्ट हैं ही, परन्तु आप सिवाय अन्य जन हैं तिनिकू भी नष्ट करैं हैं। भावार्थ- यहां सामान्य वचन है तातें ऐसा भी आशय सूचे है जो सत्यार्थ श्रद्धान ज्ञानचारित्र तो दूरि ही रहो जो अपने मत (जैनधर्म ) की श्रद्धा, ज्ञान, आचरण तें भी भ्रष्ट हैं ते तो निरर्गल स्वेच्छाचारी हैं, ते श्राप भ्रष्ट है तैसे ही अन्य लोकन कू उपदेशादिक करि भ्रष्ट करें हैं तथा तिनिकी वृत्ति देखि स्वयमेव लोक भ्रष्ट होय है तातें ऐसे तोत्र कषायी निषिद्ध तिनकी संगति करना भी उचित नहीं । ( यह भावार्थ पं० जयचन्द जी ने लिखा है ) इससे बिल्कुल स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी के समय भट्टारकों की भ्रष्ट लीला प्रारम्भ हो गई थी कि जिनकी धर्मविरुद्ध लीला से दुखी होकर ऐसे वेदनापूर्ण उद्गार श्री स्वामी जी को निकालना पड़े। जैसे कि-श्री प्रात्मानुशासन ग्रंथ में श्री गुणभद्राचार्य को
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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