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________________ ७४ ] * तारण - वाणी * भवों में संसार से छूट जावें । मध्यमता यह है कि पुण्यानुबंधी पुण्य साथ लेकर सुख - साता देने वाली मनुष्य तथा देवगति को प्राप्त करें और पापानुबंधी पुण्य और पापानुबंधी पाप करने वाले जघन्य तथा निकृष्ट मनुष्यों को तो दुखदायक गतियों के सभी द्वार खुले हैं । धर्मायतन तथा जिनप्रतिमा का सच्चा स्वरूप श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित श्री 'रयणसार' जी ग्रन्थ - इसमें सर्व प्रथम गाथा --- मंगलाचरण की में ही कहा है कि इस रयणसार को श्रावक ओर मुनिधर्म ( दोनों के लिए ) पालने वालों को कहूँगा । जो इसमें तो श्रावकों के लिए अष्ट द्रव्य से प्रतिमा पूजन का उपदेश होना ही चाहिए था, किन्तु कहीं रचमात्र जिक्र भी नहीं किया गया, तब कैसे मान लिया जाय कि श्री कुन्दकुन्दाम्नाय में यह मान्यता कल्याणकारी है । णमिऊण वडमाणं परमप्पाणं जिणंति सुद्देण । बोच्छामि रयणसारं सायारणयारधम्मीणम् ॥ १॥ - अर्थ — त्रियोगशुद्धि पूर्वक भगवान वर्द्धमान को नमस्कार करके गृहस्थ और मुनि के धर्म का व्याख्यान करने वाला 'रय एसार' कहूँगा । सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहा रूक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिज्जह णिच्छयववहारसरूवदोमेदं ॥ ४ ॥ अर्थ–सम्यग्दर्शन ही समस्त रत्नों में सारभूत रत्न है और वही मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल है । उसके (सम्यग्दर्शन के) निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन इस प्रकार दो भेद जानना । इसके गाथा ६६ ताईं लगातार श्रावक ( गृहस्थ ) धर्म का उपदेश है जिसमें श्रावकों की ५३ क्रियाएं, ७० गुण, पात्रों को ४ दान इत्यादि सभी बातों को अच्छी तरह बताया। परन्तु, कहीं भी प्रतिमा का और अष्ट द्रव्य का नाम भी नहीं आया, यहां तक कि गाथा ३२ से ३७ तक में यह तो बताया कि जो धर्म, दान, पाठशालादि के धन को अपहरण कर लेता है अथवा धर्मकार्यों में अन्तराय करता है उसे तीव्र पापबंध होता है, जिसके फल से कोढ़ी इत्यादि दुख व नरकगति के दुख भोगता है । बन्धुओ ! निष्पक्ष विचार करो कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी को इसमें अवश्य ही अष्टद्रव्य For वालों को भी पापबंध होता है यह लिखना था । बल्कि गाथा ५६ में यह लिखा है कि- इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी पंचमकाल में मिध्यात्वी मनुष्य अधिक हैं, परन्तु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ और मुनीश्वर दुर्लभ हैं। इसके आगे गाथा ६१ में लिखा
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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