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________________ * तारण-वाणी [७३ गुणस्थान से व्यवहारसम्यक्ती होकर ग्यारहवें तक, जहां तक कि उसे पुरुषार्थ करना है व्यवहार सम्यक्ती जानना, व वारहवें में पुरुषार्थ की सिद्धि हो जाने पर निश्चयसम्यक्ती जानना कि जिससे केवलज्ञान की जाप्रति हो जाती है। इस तरह कहने के लिए ही २ भेद हुये किन्तु एक ही दिशा में चलने से वास्तव में दोनों एक ही कहलाये ऐसा जानना चाहिये । न कि ऐसे दो भेद कि भगवान की पूजा, दान-पुण्य, एकात उपवास, तीर्थ यात्रा, भगवान अथवा भगवान की प्रतिमा का दर्शन, त्यागी मुनि इत्यादि को श्राहार अथवा धर्म-प्रभावनादि कार्यों से हमें पुण्य बंध रहा है यह व्यवहारमोक्षमार्ग या व्यवहारसम्यग्दर्शन है। और जब जो कोई या हम मुनि हो जाते हैं, वह निश्चयमोक्षमार्ग है। हां, सच्चे देव अरहत, सच्चे निग्रंथ गुरु और दयामयी धर्म का जो स्वरूप श्री कुन्दकुन्दादि सभी आचार्यों ने बताया है उनकी मान्यता, जैनधम की प्रभावना को प्रकाशित करने वाली धर्मप्रभावनादि दान-पुण्य उपवासादि सो भी समता और विवेकपूर्वक किए जाने पर पुण्यबंध करने वाले हैं। किन्तु ध्यान रहे कि-- पुण्यबंध के भी दो भेद हैं, पुण्यानुबंधी पुण्यबंध और पापानुबंधी पुण्यबंध सम्यक्ती जीव को सातिशय पुण्यबंध तथा समता व विवेकपूर्वक करने वाले को पुण्यानुबंधी पुण्यबंध ऐसे सामान्य भेद से यह दो रूप तो पुण्यानुबंधी पुण्यबंध के जानना तथा अविवेकपूर्वक मानादि कषायों की पूर्ति हेतु किये गये पुण्य कार्यों में पापानुबधी पुण्य बंधता है। विशेष-श्री तीर्थंकरादि केवली पुरुषों का सातिशय पुण्य है, तथा जिनके पुण्य का उदय है और उस पुण्य के उदय में जो सम्यक्त प्राप्त करने वाले पुरुषार्थ में सफलीभूत हो जाते हैं उनका भी पूर्व पुण्य तथा सम्यक्ती होने पोछे बांधा हुआ पुण्यबंध सब सातिशय पुण्य हो जाता है, इस और भी सरलता से ऐसा समझो कि-दर्शनविशुद्धि भावना की परिपूर्णता में तो श्री तीर्थंकर गोन जैसा महानतम सातिशय पुण्य का तथा दर्शनविशुद्धि भावना की साधारणता में उसके अंश प्रमाण सातिशय पुण्यबंध होता है। दृष्टांत के लिये--जैसे तीर्थंकरों की अपेक्षा सामान्य केवलियों का । पुण्यानुबंधी पुण्य उसे कहते हैं कि जिस पुण्य के उदय में मनुष्य नूतन पुण्यबंध के पुण्य कार्य करता रहे, जैसे धर्मप्रभावना, पात्रदान, परोपकार, शीलवतादिकों का पालन, यथाशक्ति चारों दान, तीर्थयात्रा तथा पात्रों की वैयावृतादि । पाषानुबंधी पुण्य उसे कहते हैं जिम पुण्य के उदय में मनुष्य अपने पुण्य के बल के द्वारा पापोपार्जन करने वाले पाप कार्य करता रहे-जैसे कुशीलादि सप्त व्यसनों का सेवन, पांचों पापों में प्रवृत्ति, व्यवहार में लेन देन में कठोरता व कषाय भावों की वृद्धि, बहु प्रारम्भ परिग्रह आदि । अधिक क्या लिखें-मनुष्य जन्म पाने की सार्थकता एवं उत्तमता तो एकमात्र यही है कि हम सम्यक्त प्राप्त करलें और सातिशय पुण्यबंध लेकर परभव में जावें और दूसरे ही अथवा २-४
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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