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________________ ५८] * तारण-वाणी * के जो साश्वत व ध्र व गुण हैं उन्हीं को नमस्कार करते हैं । क्योंकि उन्हें प्रात्मा के ही अपने गुग प्राप्त करना अभीष्ट था । अपने ही गुण हमें मोक्ष पहुँचाने में समर्थ होते हैं, परके नहीं । भगवान महावीर पूज्यदृष्टि से सब कुछ हैं किन्तु वस्तुत: तो पर ही हैं। उनके गुण उनके लिये व हमार गुण हमारे लिये उपयोगी हैं, यही जैन सिद्धांत है। १८५-चेतना लख्यनो धम्मो, चेत्यन्ति सदा वुधै। ध्यानस्य जलं सुद्ध', न्यानं स्नान पंडिता ॥ अपनी जो चैतन्य लक्षण आत्मा उस आत्म-धर्म का ही हे बुद्धिमानो ! सदैव चिन्तन करो । तथा ध्यान-रूपी जल से स्नान करो, यही सच्चा धर्म का चिंतन व स्नान करना है। पंडितों से करने योग्य ऐमा ही ध्यान, स्नान व आत्म-चिंतन धर्म जानना। १८६-प्रक्षालितं अशुभ भावना। अशुभ भावनाओं का त्याग करो। १८७--वस्त्रं च धर्मसद्भाव, आभरनं रत्नत्रयं । मुद्रका सम मुद्रस्य, मुकुट न्यानमयं धुवं । हे भव्यो ! सद्भावरूपी धर्म के वस्त्र पहिनो, रत्नत्रय के आभूषण पहिनो, समतारूपी मुद्रिका व ज्ञानरूप मुकुट बांधो । इस तरह की सजावट ही मोक्षमार्ग है । १८८-वैराग्य तिविहि उबन्न । संसार, शरीर, भोगों से वैराग्यवान बनो । १६-दर्शन मोहंध विमुक्क, रागदोष च विषय गलियं च । हे भव्य ! मोह, राग, द्वेष तथा विषय कपायों का त्याग करो। १६०--संसार शरण नहु दिन्टं, नहु दिस्टं समल प्रजाव संभावं। हे भव्य ! संसार का शरण और पार्थिक मैलेभाव, ये दुःखदायक है, मोक्षमार्ग में बाधक हैं इनकी ओर दृष्टिपात मत करो। १६१-श्री तारण स्वामी ने उवनरलो की तरह चौबीस अर्करली गाधा श्री ममलपाहुड़ न्ध (अध्यात्मवाणी) में लिखी हैं उन उवन उत्रन उब उवनरली, उव उवन समय रलि मुक्ति मिली । उव उवन उक्न 'कलिकमल' रली, उव कलन कमल रलि मुक्ति मिली ।। उब उवन चरन उव चरनरली, उब चरन कमल रलि मुक्ति मिली। उब उवन रमन उव रमनरली, उब रमन कमल रलि मुक्ति मिली। उचन समय-अन्तरआत्म उपदेश, कलिकमल-आत्मध्यान, चरन कमल-आत्मचारित्र, रमन कमल-आत्मरमण, अन्मोय कमल-आत्मप्रीति. इस तरह लखनरली, हंसरली, विंदरलो, अलवरली, आनन्दरली, अर्करली इत्यादि भेदों द्वारा आत्मप्रकाश करने का आध्यात्मिक मनन किया है और यह भाव दर्शाया है कि जिस प्रकाश को प्रकाशित करके चौबीस तीर्थकर हुए हैं । हे भव्य ! वह प्रकाश तरी आत्मा में भी है, तू उसे प्रकाशित करके स्वयं तीर्थंकर बन सकता है। अत: स्वयं तीर्थंकर बनने का उद्यम कर, पुरुषार्थ कर । तीर्थंकरपद व मोक्षपद पुरुषार्थ पर निर्भर है ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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