SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी * [ ५७ में 'सोऽह' की भावना प्रगट कर रहे हैं। हे जिनवर ! तू अपने समवशरण में विराजमान होकर लाखों-करोड़ों देव, मानवों का कल्याण कर रहा है इसलिए संसार में बड़ा है । मैं भी अपने भीतर के इस छोटे से समवशरण में भला हूँ कि जिसमें बैठी हुई मेरी आत्मा आत्मकल्याण कर रही है। विशेष – भगवान का समवशरण तो निमित्तमात्र ही होता है, उसके द्वारा हम अपना कल्याण करें या न करें । परन्तु सम्यक्ती पुरुष के भीतर का उसका अपना समवशरण तो निश्चित ही उसे मोक्ष पहुँचा देता है। यही तो जैनधर्म की विशेषता है । १७८ - देखत हो रे ! सुन समूह, बावरे ! हृदय देखो । कैसे प्रेमपूर्ण शब्दों में गुरुदेव शिष्यसमूह से कह रहे हैं कि हे बावरे ! बाहर क्या देखते हो ? हृदय देखो । श्रहः ! यह कह लाता है गुरुओं का प्रेमपूर्ण हृदय । १७६ - सरन विली, मुक्त विलास । जब शरणभाव विलीयमान हो जाता है, तब मुक्ति में विलास होता है । संसार का शरण तो संसार में डुबा ही रहा है, परन्तु जब तक जो आत्मा भगवान की शरण में हूँ यह मानता है तब तक उसका मुक्ति में अथवा मुक्तभाव में विलास नहीं होता, यही तो जैनधर्म की आश्चर्यजनक एक विशेषता है । १८० - मुक्त स्वभाव, शल्य शून्य । जहां मुक्त स्वभाव जाग्रत हुआ कि समस्त प्रकार की शल्यों से हृदय शून्य हो जाता है । १८१ - त्रैलोक्य मण्डन स्वभाव पयपूज्य उत्पन्न चतुष्टय | तीन लोक को शोभायमान करने वाली जो सम्यक्त स्वभाव वाली आत्मा, वही पूज्य है तथा वही चार अरहंत गुणों को उत्पन्न करने में सामर्थ्यवान् है । १८२ - श्रयम् अयम् अयम् जयं जयं जयं रयन तीन जय जय जय संसार तो आवहि जाहि । श्री गुरु महाराज कहते हैं हे भाई! यह संसार तो आवागमन स्वभावा है इसमें संमारी प्राणी आ जा ही रहे हैं; तू तो सम्यग्दर्शनरूप अपनी आत्मा, सम्यग्ज्ञानस्वरूप अपन आत्मा और सम्यक् चारित्रस्वरूप अपनी आत्मा की उन्नति मन, वचन, काय से कर, रत्नत्रय की वृद्धि मन, वचन, काय से कर । यही तेरा कर्तव्य है, कल्याणमार्ग है । १८३ - चतुरंग सेना जयन कमल । हे भव्य ! तेरो आत्मा की जो चतुरंग सेना - अनंतदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तबल और अनन्तसुख, इनकी वृद्धि कर । दर्शनावर्णी, ज्ञानावर्णी, अंतराय और मोहनीय इन चार कर्मों के नाश करने का पुरुषार्थ कर । १८४ - ममात्मा गुं सुद्धे, नमस्कार सास्वतं धुवं । श्री तारण स्वामी अपनी ही श्रात्मा
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy