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________________ • तारण-वाणी उवन अंक सुई विंद समानी, उव उवन मिलन सिधि मुक्ति विवानी ॥१॥ न्यानी हो जिन प्रगम विवानी, न्यान विन्यान होय पहिचानी । उव उवन उवन दरसावो स्वामी, न्यानी हो तुम अगम विवानी ||२|| "अर्क फूलना" . इस 'अर्क फूलना'-प्रकाश की उमंग में-श्री तारन स्वामी कहते हैं-जो मानव श्री अरहंत के द्वारा उत्पन्न हुए उपदेश में समा जाता है-उसे हृदयंगम कर लेता है, उसकी श्रेष्ठ बुद्धिज्ञान में अलख जो आत्मा वह लखने में आ जाती है अर्थात् उसे परमात्मा का दर्शन हो जाता है और उस परमात्मदर्शन में ही मोक्षभाव का प्रकाश हो जाता है। वह मोक्षभाव ही उसे मोक्ष में ले जाने वाला विवान है। अतएव हे स्वामी ! यहाँ स्वामी का अर्थ अपनी अंतरात्मा से है कि हे आत्मा ! तू उसही उपदेश को दर्शाओ जोकि श्री अरहंत की प्रात्मा ने दर्शाया था । उस आपके उपदेश की उसे ही सच्ची पहिचान होती है जो भेदविज्ञान के द्वारा उसे पहिचानता है। हे ज्ञानी हो ! तुम 'जिन' अगम विवानी बन कर उसके द्वारा सिधि मुक्ति में प्रवेश करो। सपने स्वरूप की जाग्रति करना ही मुक्ति में प्रवेश करना है। १२३-विलस रमन जिन मोय लै जाई, उव उवन स्वाद रंग मिलन मिलाई । जं सूर उदय सुइ रयन गलाई, तं उव उवन उदय सुइ सरन विलाई ॥१॥ जिन दिप्ति उवन सुइ समय समाई, जिन दिप्ति दिष्टि सुइ रमन रमाई । जिन सुवन सुर्य सुइ सम विलसाई, सम समय सरन सम मुक्ति लहाई ॥२॥ जिन दिस्टि उवन सिधि सम विलसाई, ज सूर कमल जिन सुयं विगसाई । जिन उवन मिलन सुइ काल विलाई, जं जाय नाम गुन सुन्न समाई ॥३॥ इस मिलन समय फूलना में श्री तारन स्वामी अपनी अन्तरात्मा से कहते हैं-हे जिन अन्तरात्मा ! तू अपने आपके आत्मानन्द भोग में इस तरह विलास कर व रमण कर कि तेरा गंग व श्री अरहत के उपदेश का रंग दोनों का स्वाद-रंग एकमेक होकर मिल जाय । ऐसा होने पर जिस तरह सूर्य के उदय होने पर रात्रि चली जाती है उसी तरह अरहन्त के उपदेश का उदय जसके भीतर अपनी आत्मा में हो जाता है उसके भीतर से समस्त पर पदार्थों के प्रति जो शरण भावनायें संसारी प्राणियों में रहती हैं वे सब विला जाती है, विलीयमान हो जाती हैं ॥१॥ .: जिनके भीतर उस उपदेश का प्रकाश हो जाता है उनकी आत्मा अपनी ही आत्मा में समा जाती है और उनकी अन्तर प्रकाश पूर्ण दृष्टि अपने आप में हो स्थिर हो जाती है । उनकी 'जिन सुवन'-आत्मबुद्धि समताभाव में विलास करने लगती है और वह समभाव या समताभाव के शरण को प्राप्त हुई आत्मा मुक्ति पा जाती है, अधिकारी हो जाती है ॥२॥ जिनकी वह समताभाव से परिपूर्ण उत्पन्न दृष्टि सिद्ध के समान ( सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि,
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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