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________________ ५६] * तारण-वाणी ११६-उव उवन उवन उव उवन जिनैया, उब उवन सहावे कलन कलैया । :: घर चरन. चरिय जिन चरन चरैया, चरि कलन उवन जिन मुक्ति मिलैया ॥ ___ अब हम वंदे हैं जिन जिनय जिनैया, कम कमल कलिय धुव मुक्ति रमैया ।। जो ज्ञानी पुरुष श्री अरहंत के उपदेश के अनुसार नय के चलने वाले हो जाते हैं अर्थात् निजानंदरस के प्रेमी-प्रात्मरमी हो जाते हैं, वे ही सच्चे ध्यानमग्न-प्रात्मध्यानी साधु हैं, सच्चे आत्मध्याता हैं । और उनका चारित्र 'जिनचरन' अन्तरात्मा के अनुसार होता है । जैनधर्म में आत्माचरण ही कर्मनिर्जरा का कारण है जबकि प्रात्माचरण के बिना मात्र बाह्माचरण कर्मनिर्जरा का कारण नहीं । अत: आत्मध्यानी और आत्माचरण करने वाले साधुओं को मुक्ति का लाभ होता है । श्री तारन स्वामा कहते हैं कि ऐसे आत्मज्ञानी-ध्यानी और आत्माचरण करने वाले साधुओं की हम वंदना करते हैं । कैसे हैं वे साधु ? श्री अरहंत की नय पर चलने वाले हैं, जल में कमल की भाँति संसार से अलिप्त रहते हैं और मुक्ति का जो साश्वत सुख उसके भोक्ता होते हैं। १९०-जयवीर उवन जिन अंनिजय, जय कलन कलिय जिन जिनय जिनं । जयतार कमल 'जिन श्रेनि सुयं, सह समय साह जिन मुक्ति जयं ।। जो मानव अपने आप में बल को उत्पन्न करके अपनी आत्म-श्रेणी की वृद्धि करते हैं अर्थात अपने आत्मपरिणामों को उत्तरोत्तर निर्मल-पवित्र और समताशील करते जाते हैं उनका आत्मध्यान भी वृद्धि पाता हुआ जिनेन्द्र की नय में प्रतिष्ठित हो जाता है । और वे अपनी तारण स्वरूप प्रात्मा की श्रेणी बढ़ाते हुए साहजिन-अरहंत होकर मुक्ति को पा जाते हैं । मूल में प्रात्मबल और अन्त में मोक्ष यह बताया है। १२१-नयन मेरे ममल मय, ए जिन, देखत तरन विवान । नयन मेरे ममल मयं, स्पर्सत उवन विवान ॥ श्री तारण स्वामी अपने आपके ज्ञाननेत्र की सराहना करते हुए कह रहे हैं कि-मेरे पवित्रतम ज्ञाननेत्र में 'जिन' तरन विवान का दर्शन हो रहा है। तथा 'उवन विवान' उपदेश रूपी विवान को मेरे ज्ञाननेत्र छू रहे हैं । 'जिन' तरन विवान और 'उवन' विवान, इन दोनों की महिमा श्री तारण स्वामी ने अपने अध्यात्मवाणी ग्रंथ में सैकड़ों बार गाई है। आत्मकल्याण के लिए उनकी दृष्टि में यह दोनों मूलमंत्र ही थे। 'उवन'-अरहत का उपदेश और 'जिन'अपनी अन्तरात्मा का प्रकाश "उवन-निमित्त और उपादान-अंतरात्मा का प्रकाश" इन दो के सिवाय उनकी दृष्टि में आत्म कल्याण के लिए न तो भगवान का साक्षात् दर्शन और न उनके समवशरण की महिमा अथवा उनकी मूर्ति या उनके नाम की जाप उपयोगी नहीं थे। १२२-उव उवन उवन उव उवन समानी, उव उवन साहि-सिय अलख लखानी । उव
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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