SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी * [ ३७ ६५ – कमलं सीहं सहार्थ, नन्द श्रानन्द चेयानन्दं । कमल कहिए श्रात्मा का स्वभाव सिंह के समान वीरत्व व विचारवान है तथा नन्द कहिए चार चतुष्टयरूप है, श्रानन्दरूप है, चेयानन्दरूप है अर्थात् चैतन्य लक्षण संयुक्त है । ६६ – संसर्ग कम्म खिपनं, सारं तिलोय न्यान विन्यानं । तीन लोक में भेदविज्ञान ही सार है । भेदज्ञान से ही बँधे हुये कर्म खिपते हैं, निर्जरा होती है । ६७ - रुचियं ममल सुभावं संसारं तरन्ति मुक्तिगमनं च । जिन्हें आत्मा के निर्मल स्वभाव की रुचि हो जाती है, वह रुचि ही उनकी मोक्षमार्ग है, मोक्षमार्ग हो संसार से पार करके मुक्ति--गमन का कारण है । जिन्हें निर्मल स्वभाव की रुचि हो जाती है वे आत्मा को मलिन करने वाले राग, द्वेष, मोह, कामादि विकारभार अपने आप में उत्पन्न नहीं होने देते । ६८ - जिनरागगलं, जिनदोष विलं, जिन दिप्ति दर्स संजुत्तु । जिनके भीतर से राग दूर हो जाता है उनके दोष स्वयं ही विलीयमान होने लगते हैं अथवा दूर हो जाते हैं और उस राग को दूर करने से जिन दिप्ति दर्स कहिए अन्तरात्मा का प्रकाश होकर दर्शन संयुक्त हो जाते हैं । अर्थात सम्यहष्टि हो जाते हैं । राग ही समस्त दोषों का मूल कारण है ऐसा जानना । ६६ - जिनरंजरमन जनरंजगलनु जिन अमिय सिद्ध सम्पत्तु । जो भव्य पुरुष अन्तरात्मा के आनन्द में रमण करने लगते हैं उनके भीतर से लोक रंजायमान ( संसार को अपना tes दिखाकर प्रसन्न ) करने वाली भावना नहीं रहती । और वे उस अपनी अन्तरात्मा के आनंदरमण में अमृतस्वरूप सिद्ध सम्पत्ति का अनुभव करने लगते हैं । / १० – जिन दिष्टि इष्टि तं परमपऊ, जिन लखियो सिद्ध सहाउ । जो ज्ञानी पुरुषइष्टस्वरूप अन्तरात्मा की दृष्टि को लख लेते हैं वे परमात्मस्वरूप को पा जाते हैं । और सिद्धों का जो स्वभाव उसे अपने आपकी आत्मा में देखने लगते हैं अर्थात् अद्वैतदृष्टि हो जाती है "जैनधर्म के अनुसार - अद्वैत का अर्थ है कि मोक्षधाम में विराजित परमात्मा में जो गुण व्यक्त हैं वे ही समस्त गुण अव्यक्त रूप से हमारी आत्मा में मौजूद हैं यानी परमात्मा की और हमारी तथा सबकी आत्मायें एकसी हैं, एक ही नहीं ।" जैसे अग्नि का प्रकाश व तापमान सब एकसा होने पर भी दीपक व उनकी सत्ता प्रथक् २ ही होती है । ७१ - लख्यन जिन उत्रएसं, लख्यनतो ममल न्यान विन्यानं । जो मानव अंतरंग आत्म उपदेश को लखते हैं वे ही भेदज्ञान को प्राप्त होकर उस भेदज्ञान के द्वारा निर्मल आत्मा को लखते हैं, पाते हैं । ७२ - मुक्तिस्वभावं ठिदियं, ठिदिय मुक्ति ममल न्यानं च। जो मुक्ति स्वभाव - भावमोक्ष की दृढ़ता रखते हैं वे मुक्तिभाव की दृढ़ता के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं-केवली हो जाते हैं।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy