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________________ ३६] * तारण-वाणी ५७-भय विपनक जो अमिय मउ, ममल परम गुरु उतु । गुरु कहते हैं कि तुम्हारी जो सर्वोत्कृष्ट निर्मल श्रात्मा वह अमृतमय है । उस अमृत-पान करने से समस्त भय मिट जाते हैं। ५-धम्म जो धरियो ममल पउ, अमिय रमन जिन उतु । वही धर्म धारण करो जो निमलता को देने वाला और अमृत में रमण कराने वाला तथा अन्तरात्मा को प्रकाशित करने वाला हो । ऐसा धर्म केवल एक प्रात्म धर्म ही है, उसे धारण करो। ५६-अन्यानी अन्यान मओ, मिथ्या सल्य संजुत्तुरेना । मुक्ति-मुक्ति तू चिंतवहि, मूढ़ा ! मुक्ति न होइरेना ।। अज्ञानी प्राणी अज्ञानमय रहने से भांति-भांति की मिथ्या शल्यों में डूबा रहता है और भगवान से प्रार्थना करता है, हे भगवन हमें पार करो, तारो । गुरु कहते हैं, हे अज्ञानी मानव ! तेरे एसे चितवन से, प्रार्थना से तुझे मुक्ति नहीं मिलेगी। ६०-देव न दिट्ठो अमिय मऊ, परम देव नहु भेउरेना। अमृतमय जो देव-आत्मदेव उसे जाने देखे बिना तू परमदेव-परमात्मा के भेद को नहीं देख सकेगा, जान सकेगा। ६१-गुरु नवि जानियो गुपित रुई, परम गुरई नहु भेउरेना। हे भव्य ! तूने गुपित रई कहिए अन्तरात्मा-रूपी गुरु को जब तक नहीं जाना है, उसकी आज्ञानुसार नहीं चला है तब तक तू परमगुरु जो अरहन्त उनके भेद को या स्वरूप को नहीं जान सकता है। वास्तव में तेरा सच्चा गुरु तेरा ही अन्तरात्मा है, उसी की आज्ञा में चल तभी तेरा कल्याण होगा। ६६-धम्मह भेउ न जानियऊ, कम्मह किय उवएसुरेना । अन्यानी वय तब सहियो, भमियो काल अनंतुरेना ॥ तूने ! धर्म जो आत्म-धर्म, उस धर्म के भेद को नहीं जानकर जो अज्ञानपूर्वक व्रत, तप किए उनके फलस्वरूप अनन्तकाल संसार में ही भ्रमण किया, मुक्ति न पा सका । ६३-जिन जिन पति जिनय जिनेन्द पो । जिन जिनयति नंद अनंद परम जिन विंद रो॥ जिन्होंने जिनेन्द्र भगवान की नय को पाकर अपनी जिनस्वरूप आत्मा में परमात्म स्वरूप आनन्द को पा लिया है वे विदरओ अर्थात् जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। उनकी आत्मा मोक्षसुख का आनन्द यहीं पर भोगने लगती है। जिनेन्द्र भगवान की नय क्या है ? "सकलज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द रसलीन ।” इसी परिणति को जीवनमुक्त कहते हैं । ६४-गारब गयंद गलिय, सीह सहावेन ममल सहकार । सिंह स्वभाव जैसी वीरत्व गुणवाली आत्मा के निर्मल भाव के प्रताप से अभिमान रूपी हाथो चलायमान हो जाता है, भाग जाता है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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