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________________ * तारण-वाणी आचार्यों के उपदेशानुसार सच्ची देवपूजा ही तारण स्वामी ने कही है। उपरोक्त गाथा में बताया है कि-सच्चे षट्कर्म वे ही हैं कि जिन प्रत्येक षट्कर्मों में 'दर्शन' पद-पद डोले व प्रात्मभावना बोले" अत: सच्ची देवपूजा यही है कि हम अपनी आत्मा में परमात्मस्वरूप का अनुभव करें और अन्तरात्मापने के भावों की सदैव रक्षा एवं वृद्धि करते हुए स्वयं परमात्मपद के अमिलाषी बने रहें। इस अपनी अभिलाषा पूर्ति के लिए आत्मध्यान व प्रात्म - मनन करके आत्मीक आनंद का स्वाद लेने से ही कर्मों का संवर और निर्जरा होती है अतएव-मनन करते समय भगवान अरहत के गुणों का चितवन करना व तद्गुणलब्धये' की भावना करने को ही श्री तारन स्वामी ने 'देवपूजा' कही है। जैनधर्म की मान्यता है कि केवल जिन वचन ही मथार्थ होते हैं और सम्यक्ती पुरुष उन्हें ही मान्य करे जबकि जन बचन (दूसरों के बचन) को मानने वाले मिध्यात्वी होते हैं, यह मान्यता यथार्थ है कल्याणकारी है। परन्तु पूजा के विषय में यह बात कैसे संभवती है कि उन्हीं प्राप्त-अरहंत ने समोशरण में षट्कर्मों का उपदेश करते समय यह कहा हो कि श्रावको ! तुम इसे ही देवपूजा मानना कि हमारी मूर्ति पधरा कर उसकी अष्टद्रव्य से पूजा करना कि जिससे आठों कर्मों की निर्जरा हो जायगी, या पुण्यबंध करके स्वर्ग और स्वर्ग से मोक्ष में पहुँच जाओगे ? यह इतनी मोटी बात है कि विचार किया जाय तो थोड़े ही में समझी जा सकती है। विशेष यह कि तारन स्वामी ने सच्ची वही देवपूजा या जिनपूजा कही है कि जो श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने बोधपाहुड़ में बताई है और श्री योगीन्द्रदेव ने कहा है कि वही सम्यग्दृष्टि है जो "निज स्वरूप में जोर में, त्याग सर्व व्यवहार । सम्यग्दृष्टी होइ सो, शीघ्र लहै भव पार ॥८॥" ऐसी ही निज-स्वरूप में रमण करने वाली जिनपूजा कही है "हां मूर्ति-पूजा तारण समाज में नहीं होती यह तो स्पष्ट ही है।" तो क्या 'मूर्ति-पूजा' नहीं करने वाले देवपूजा से वचित ही रहते होंगे ? किन्तु शास्त्र सिद्धांतानुसार यदि विचार किया जाय तो वस्तुस्वरूप से यही बात पाई जायगी कि आत्मा का पुजारी सच्ची देवपूजा करता है जबकि प्रतिमा का पुजारी देवपूजा से वञ्चित रह जाता है। कहा है कि-महिमा अपार सुख सिंधु ऐसो घट ही मैं, देव भगवान लखि दीप सुखकारी है ॥ देवन को देव (अरहंत देव ) सो तो सेवत अनादि आयो, निजदेव (अपना भात्मदेव ) सेए विनु शिव न लहत है। यह ज्ञान दर्पण में कहा है। ऐसी आत्म-देवपूजा श्री तारन स्वामी ने बताई है कि हे भावको ! मूर्ति की तो क्या बात तुम अनादि काल से साक्षात् भगवान की पूजा भी करते रहे फिर भी संसार से पार न हुये भतएव 'प्रात्मपूजा' करो जिससे कि संसार से पार हो सको और इसे समझने व करने का यही अवसर है,
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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