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________________ २२ ] * तारण-वाणी * ' तारन तरन फूलना " - इस अन्तिम छन्द में श्री तारण तरण स्वामी ने यह साफ-साफ प्रगट कर दिया है कि मैंने जो कुछ कहा है वह श्री महावीर स्वामी की वाणी के अनुसार है । जैसा धर्म का उपदेश उन्होंने सौधर्मेन्द्र को, गौतम गणधर को तथा राजा श्रेणिक को दिया था, वैसा ही धर्म मेरे इस कथन में है तथा यह वाणी प्रवाहरूप से ध्रुव है । सब हो तीर्थंकरों ने अनादिकाल से ऐसा ही उपदेश दिया था व आगामी दे रहे हैं व देंगे। वह मोक्षमार्ग एक शून्य या निर्विकल्प समाधि है उसी का सेवन करके श्री वीर प्रभु ने मोक्षपद साधा था यह भी कहा है कि इस तत्वोपदेश को समझो, पढ़ो, मनन करो व इसके अनुसार साधन करो, अपनी गाढ़-भक्ति श्री वीर भगवान में प्रगट की है । । तथा इसकी रक्षा करो । - त्र० शीतलप्रसाद जी । श्री १०३ जैन धर्मभूषण, धर्मदिवाकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ( लखनऊ निवासी ) ने अनेक जैन ग्रन्थों की टीका के साथ ही साथ श्री तारण स्वामी कृत — तारण तरणा श्रावकाचार, न्यान समुच्चयसार, उपदेशशुद्धसार, चौबीसठाना, मालारोहण, पंडितपूजा, कमलबत्तीसी, त्रिभंगीसार और श्री ममलपाहुड़ जी ( तीन भाग में ) इस तरह ६ ग्रन्थों की टीका ( भाषा टीका ) करके जैन समाज अथवा तारण समाज का महान उपकार किया है। कोटिशः धन्यवाद । आप भी तारण स्वामी की माध्यात्मिक रचना जो कि भगवान महावीर की वाणी का सार है, की टीका करते-करते इसमें कितना आनंदामृत पान करने लगे थे कि पढ़ते हुए झूमने लगते थे, जैसे भौंग कमल-पुष्प में श्रानन्द विभोर होता है उसी तरह आप श्री तारण-वाणी में आनन्द विभोर हो जाते थे । यह अध्यात्मरचना का माहात्म्य स्वभाविक ही होता है। जो भी भाई अध्यात्मप्रिय होते हैं उन्हें ही अध्यात्मग्रन्थों में रस आता है। यह रस ही कर्म संवर व निर्जरा करता है । — ब्र० गुलाबचन्द | भावक के शुद्ध षट्कर्म गाथा – पट्कर्म संमिक्तं सुद्धं संमिक अर्थ सास्वतं । संमिकं सुद्ध धुवं सार्द्ध संमितं प्रति पूर्जितं ॥ ३८ ॥ वे ही सत षट्कर्म कि जिनमें, 'दर्शन' पद-पद डोले । मुखरित होकर नित जिनमें से, आत्म-भावना बोले ॥ 'दर्शन' युत षट्कर्म शुद्ध हैं, ध्रुव श्रद्धास्पद हैं ' मोक्षमहल के अभिनव पथ को ये विद्युत् के पद हैं ॥ श्री तारन स्वामी ने जैन सिद्धांतानुसार ही षट्कर्म कहे हैं- "देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान" जबकि "मूर्तिपूजा" को ही देव पूजा मानने वाले भाई ऐसा जानते हैं कि तारण समाज में देवपूजा नहीं होती; अतः इस लेख में यह बताया गया है कि जैन
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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