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________________ २०] * तारण-वाणी * "बन्ध विलय फूलना "-इसको बार-बार पढ़ने से व मनन करने से अवश्य कर्म बन्ध का क्षय होगा। "उखन मिलन पञ्चीसी" इसमें शुद्धात्मा के अनुभव की उत्तम रीति बताई है। तथा यह मलकाया है कि जिनेन्द्र भगवान का लाभ व जिनेन्द्र का दर्शन उसी को होता है जो अपने आत्मा को पहचान कर उसके शुद्ध स्वरूप का निश्चय करके भेद विज्ञान पूर्वक उसी शुद्धात्मा के ज्ञान में रमण करता है। "जय रंजसी अर्क गाथा"-इसमें बताया है कि जैनधर्म व जिनवाणी के प्रताप से मोक्षमागं मिलता है । जो निश्चय से स्वात्मरमण रूप है, शुद्धोपयोग रूप है, स्वात्मरमण में ही रत्नत्रय गर्भित है। " अर्क उवन फूलना "-इसमें आत्मा रूपी सूर्य के प्रकाश करने का उपाय बहुत अच्छी नरह बताया है-मनन करने योग्य है । " उवन कमल बतीसी" - इसमें श्री तारण तरण स्वामी ने स्वयं परमात्मा होने की सुंदर भावना की है। बार-बार पढ़ने योग्य है। यह पुरानी हिन्दी का नमूना है।" ___दिप्ति विवान गाथा"-इसमें श्री तारण स्वामी ने यही कहा है कि आत्मज्ञान की चमक हो वह जहाज है जिस पर चढ़कर यह जीव निर्वाण का लाभ करता है। आत्मानुभव में आत्मरसंगा का स्नान है, आत्मीक शांत रस का पान है, यही अद्भुत प्रकाश है, यही आत्मा आत्मारूप रहता है; यही एक देश विकसित कमल है सो ही अरहन्तपद में पूर्ण विकसित कमल हो जाता है। आत्मानुभव ही केवलज्ञान का अंकुर है-बीज है। अतिशय चौंतीस गाथा " इसमें श्री तारण स्वामी जी ने बड़ी विद्वत्ता से श्री अरहन्त परमात्मा की, आत्मा में चौंतीस अतिशयों को घटाकर स्तुति की है और दिगम्बर जैन शास्त्रों के अनुसार उन्हें अरहन्त की आत्मा में युक्ति संगत सिद्ध किये हैं।" ... ... ... ... .... “अष्ट प्रातिहार्य गाथा"-इसमें अध्यात्म-दृष्टि से श्री अरहन्त परमात्मा में आठ प्रतिहार्य बताए हैं।" "अरहन्त सर्वज्ञ फूलना" इस फुलना में श्री अरहन्त परमात्मा के अन्तर-गुणों की स्तुति 'निश्चयनय के श्राश्रय से की गई है। यही निश्चय स्तुति का प्रकार है . . इसमें अनन्तदर्शन; अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख, क्षायिक सम्यदर्शन, ज्ञायिक चारित्र ..या बीतरागभाव या ममभाव की अच्छी महिमा गाई गई है। स्वात्मानुभव या शुद्धोपयोग की छटा दिखाई गई है। 'अरहन्त को कहा गया है कि स्वचारित्र रूपी ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्र के समान सिद्धलोक को जा रहे हैं। परमात्मा की तरफ भानन्द से बढ़ रहे हैं। ऐसी स्तुति से भावों की शुद्धता हो कर शुखोपयोग के अंश प्रगट हो जाते हैं। जिन अंशों से प्रचुर फर्म की निर्जरा हो जाती है,
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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