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________________ * तारण-वाणी * [ १९ शब्दों के द्वारा स्वात्मानुभव करने का उपाय स्वात्म-मनन को मलकाया है। यह एक प्रकार का श्रात्मा का स्तवन है, यही जिनस्तुति है। जिन आत्मा को ही कहते हैं।” यही अपने पुरुषार्थ से स्वात्मरमण से कषायों व कर्मों को जीत लेता है। " इष्ट उत्पन्न छ" इसमें श्री तारण स्वामी ने अरहंत पद के लिए जिस अभ्यास को आवश्यकता है उसको बताया है, भव्यजीवों को उचित है. कि जिनवाणी द्वारा तत्वों को जानकर अपने आत्मा के निश्चय स्वरूप पर विश्वास लावें । " “ अन्मोय चौबीसी " इसमें आत्मानन्द की स्तुति की गई है, वास्तव में जैन सिद्धान्त का यही सार है कि जहां आत्मानन्द का या ज्ञानानन्द का अनुभव है वहीं धर्म है। " हमगमवड फूलना " इसमें स्वामी जी ने शुद्धात्मा के रमण से जो आनन्द होता है, उसी की महिमा गाई है। आत्मा को इसी जीवन में रहते हुए विकाश-भाव का जो लाभ होता है इसी को अरहंतपद कहते हैं।" 66 तरन विवान विजौरौ गाथा " इसमें श्री अरहंत परमात्मा की स्तुति का गान है, जिसके गाने से मन एकाएक अरहन्त परमात्मा के शुद्ध गुणों में रंजायमान अर्थात् आनन्दित हो जाता है, संसार की परिणति का मोह दूर हो जाता है, मोक्ष-पद की प्राप्ति का प्रेम उमड़ आता है। इस स्तुति में यह भावना है कि मेरा आत्मा भी अरहन्त होकर मोक्ष के मिष्टफल को प्राप्त करले ।" " विवान अर्क गाथा " इसमें श्री अरहन्त परमात्मा की खूब भाव से स्तुति की है।" विशेष- श्री तारन स्वामी ने अपने आत्मप्रकाश को विवान मानकर उस अपने ही विवान में विराजित आत्मा को अरहन्त गुण सम्पन्न मानकर उसके गुणों की मुग्धता में तन्मय होकर स्तुति की है। कि हे अरहन्त ! तू व्यक्त होकर अपने विवान द्वारा तीर्थंकर होकर सिद्धपद में प्रवेश कर; तू स्वयं तारण तरण जहाज है और कर्मपर्वतों को चूर करने में समर्थ है, नित्य, निरञ्जन है, शुद्ध सिद्ध है ।" " जिन बतीसी गाथा " - इसमें अरहन्त परमात्मा जिनेन्द्र की स्तुति की गई है। यह स्तुति वास्तव में निश्चय स्तुति है । यहां उनके अन्तरंग आत्मा पर आत्मास्वरूप दृष्टि है, बाहरी शरीर पर व समवसरण आदि विभूति पर दृष्टि नहीं है ।" "अर्क चौंतीसी गाथा ” – इसमें अरहन्त परमेष्ठी के अन्तरंग आत्मीक गुणों की स्तुति की है। इसको ध्यानपूर्वक पढ़ने से अरहन्त परमात्मा का अन्तरंग स्वरूप अपने ध्यान में भावा 1 भव्य - जीव को अपने आत्मा में ही मोक्षमार्ग ढूँढ़ना चाहिए। भीतर ही मोक्षमार्ग है, भीतर ही मोक्ष है जो स्व-स्वरूप का प्रेमी हो अपने आत्मा को शुद्धात्मारूप ध्याता है वही परमात्मा हो जाता है ।" " कमल कलन गाथा " - इस स्तोत्र में बड़ी उत्तमता से आत्मा को ही कमल की उपमा दी है, आत्मा को ही जिनभवन बताया है। आत्मा को ही चन्द्रमा की उपमा दी है।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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