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________________ * तारण-वाणी * [१८९ बाह्य में कुछ करने की बात नहीं है, किन्तु ज्ञान में ही समझ और एकाग्रता का प्रयास करने की बात है। ज्ञान में अभ्याम करने करते जहाँ एकाग्र हुआ वहाँ उसी समय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूप में यह आत्मा प्रगट होता है । यही जन्म-मरण को दूर करने का उपाय है। मात्मा का एक मात्र ज्ञाना स्वभाव है, उममें दूसरा कुछ करने का स्वभाव नहीं है। निर्विकल्प होने के पूर्व ऐसा निश्चय करना चाहिये । इसके अनिरिक्त मरा कुछ माने तो समझना चाहिये कि उसे व्यवहार से भी आत्मा का निश्चय नहीं है। अनन्त उपनाम करने पर भो आत्मज्ञान नहीं होता, बाहर की दौड़ धूप से भी आत्मज्ञान नहीं होना, किन्तु ज्ञानम्वभाव की पकड़ से हो आत्मज्ञान होता है। सच्चे धर्म की यह परिपाटो है कि पहले जीव मम्यक्त्व प्रगट करना है, पश्चात् व्रत रूप शुभ भाव होते हैं । मम्यक्त्व म्व और पर का श्रद्धान होने पर होता है; तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग अर्थात अध्यात्मशास्त्रों का अभ्यास करने से होता है, इमलिये पहले जीव को द्रव्यानुयोग के (अध्यात्मशास्त्रों के ) अनुसार श्रद्धा करक सम्यग्दपि होना चाहिये, और फिर स्वयं चरणानुयोग के अनुमार सच्चे बनादि धारण करकं व्रती होना चाहिए। इस प्रकार मुख्यता से तो निचली दशा में अर्थात सर्व प्रथम अध्यात्म-प्रन्थों का ही स्वाध्याय करना कार्यकारी है, उपयोगी है। अपनी बात-इसी परिपाटी से हमें सही मार्ग मिला। जीव अनादिकाल से असत् विकारी भाव पर दृष्टि रख रहा है, इसीलिये उसे पर्यायबुद्धि व्यवहारविमूढ़, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, मोही और मूढ़ भी कहा जाता है, क्योंकि वह असत् को सत् मान रहा है। यदि सम्यग्दर्शन न हो तो ग्यारह अंग का ज्ञाता भी मिध्याज्ञानी है और उसका पारित्र भी मिथ्या चारित्र है । तात्पर्य यह कि सम्यग्दर्शन के बिना व्रत, तप, जप, भक्ति, प्रत्याख्यान मादि जितने आचरण है वे सब मिथ्या चारित्र हैं, इसलिये यह जानना भावश्यक है कि-सम्यग्दर्शन क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है। मात्मा का जो शुद्धोपयोग है, अनुभव है वह चारित्र गुण है। मात्मा की शुद्ध उपलब्धि सभ्यग्दर्शन का लक्षण है। अपने स्वभाव की प्रतीति, शान और अनुभव में बतें और अपने भाव में अपनी चूचियो को परमार्थ सम्यक्त्व है। निर्विकल्प अनुभव का प्रारम्भ चौधे गुणस्थान से ही होता है, किन्तु इस गुणस्थान में वह बहुत काल के अंतर से होता है, और ऊपर के गुणस्थानों में जल्दी जली होता है। नीचे और
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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