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________________ १४४ ] * तारण-वाणी और कुन्दकुन्दादि सभी प्राचार्यों का है । इसका हमें पूरा-पूरा ध्यान रखना योग्य है। हम सांसारिक कामों में जितनी अपनी बुद्धि लगा कर अपने सब काम बनाते हैं उससे सौगुनी बुद्धि का चातुर्य इसमें लगा कर अपनी आत्मा का परभव सुधारना चाहिये। कुदेव--मिथ्या कुदेव--प्रदेव, कुगुरु--अगुरु, कुशास्त्र- प्रशास्त्र और कुधर्म-अधर्म, इनकी सत्य आलोचना करने को अवर्णवाद नहीं कहते, क्योंकि इस आलोचना में जीव-हित की भावना और वस्तुरूप की यथार्थता स्थापित होती है। यदि मिथ्यामत का निराकरण न किया जाय तो सत्य असत्य का निर्णय कैसे हो ? और जीव को सुमार्ग कैसे मिले ? हाँ, आलोचना होनी चाहिए हितदृष्टि से। "बह्वारंमपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।" अर्थ-बहुत प्रारम्भ और बहुत परिग्रह का होना नरकायु के आश्रव का कारण है । बहु प्रारंभ-परिग्रह का जो भाव है सो उपादान कारण है और जो बाह्य बहुत आरम्भपरिग्रह है सो निमित्त कारण है । "माया तैर्यग्योनस्य ।" अर्थ-माया--छल कपट तिर्यंचायु के आश्रव का कारण है । जो आत्मा का कुटिल स्वभाव है सो माया है । "अरपारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।" अर्थ--थोड़ा प्रारम्भ और थोड़ा परिग्रहपना मनुष्य आयु के आश्रव का कारण है । और यदि सम्यक्त हो गया हो तो कल्पवासी देव की आयु का बंध करते हैं । "स्वभावमार्दवं च ।" अर्थ-स्वभाव से ही सरल परिणाम होना सो मनुष्यायु के आश्रव का कारण है । तथा देवायु के आश्रव का भी कारण है। "निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ।" अर्थ--शील और प्रत का जो अभाव है वह भी सभी प्रकार की आयु के मानव का कारण है। इस सूत्र की रचना भोगभूमियों जीवों की अपेक्षा से प्रधानतया जानना, क्यों कि वहां के मनुष्य और पशु सभी देवायु का बंध करते हैं ।
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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