SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तारण-वाणी * [१४३ प्रसंग से जीव विवेक पूर्वक सत्य-असत्य का निर्णय नहीं करता और सत्य-असत्य के विवेक से रहित दशा होने से सच्चे देव, गुरु, शास्त्र और धर्म की मान्यता से वंचित रहता है तथा भांतिभांति की मिथ्या कल्पना एवं मान्यतायें करता रहता है । यह मान्यता इस भव में नई ग्रहण की हुई होने से और मिथ्या होने से उसे ग्रहीत मिथ्यात्व कहते हैं । ये अग्रहीत और ग्रहीत मिथ्यात्व अनंत संसार के कारण हैं। इसलिए सच्चे देव-गुरु-शास्त्र, धर्म का और अपने आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझ कर अग्रहीत तथा ग्रहीत दोनों मिथ्यात्व का नाश करने के लिये ज्ञानियों का उपदेश है । आत्मा को न मानना, सत्य मोक्षमार्ग को दूपित-कल्पिा करना, असन् मार्ग को मत्य मोक्षमार्ग मानना, परम सत्य वीतरागी विज्ञानमय उपदेश की निंदा करना--इत्यादि जो जो कार्य मम्यग्दर्शन को मलिन करते हैं वे सब दर्शन--मोहनीय के आश्रव के कारण है, अनंत संसार के कारण हैं । (कानजी स्वामी) उपरोक्त लेख का सारांश यही है कि-कुल अथवा जाति -परम्परागत देव गुरु शास्त्र और धार्मिक क्रियाओं को इस लिए ही सत्य नहीं मान लेना चाहिए कि ये तो हमारी परम्परागत मान्यतायें हैं । यदि असत्य होती तो हमारे पूर्वज क्यों मानत अथवा इस लिए सत्य है कि हमारे धर्म-ग्रंथों में लिखी हैं और इतने बड़े बड़े विद्वान मान रहे हैं। हमें स्वयं अपनी तत्त्वदृष्टि से उन पर विचार करना चाहिए। यदि निर्णय में ठीक उतरें तो मानना चाहिए, अन्यथा विशेष विद्वानों से समझने का प्रयत्न करना चाहिए । और गलत साबित हों तो छोड़ देना चाहिए तथा जो सत्य प्रतीत हों उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए। 'हमारा धर्म ही सच्चा है' इस बुद्धि ने ही संसार का नाश किया है । कर्त्तव्य तो यह होना था कि हम जिस धर्म को मान रहे हैं उसकी जाँच-पड़ताल हमें बहुत विवेकपूर्वक करना चाहिए थी, सो यह तो नहीं किया जाता और प्रांख मूंद कर 'अंधश्रद्धा' से मानते चले जाते हैं । यदि कदाचित कोई हमारी मान्यता में भूल बताता है तो उसे धर्म-द्रोही मान लेते हैं । तब सम्यक्-- मार्ग कैसे मिले ? यह कठिन समस्या सामने है। उपरोक्त भूल किसी एक सम्प्रदाय में नहीं, जैन--अजैनादि सभी सम्प्रदायों में है। अतः सब को ही इस पर विचार करना चाहिए । और यथार्थता को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि सर्प और सिंह से पल्ला पड़ जाय तो एक ही जन्म के जीवन-मरण का सबाल सामने खड़ा होता है। किन्तु कुदेव कुगुरु कुशास्त्र और कुधर्म का पल्ला पकड़ लेने से तो भव--भव बिगड़ जाते हैं। जबकि यदि विवेकबुद्धि से ग्रहण किये हुए सुदेव सुगुरु सतशास्त्र और सुधर्म भव-भव का सुधार कर देते हैं, इतना ही नहीं संसार पार ही करा देने का मार्ग बता देते हैं । अतएव इस सम्बन्ध में आशा भय स्नेह और लोभ सारी बातों को छोड़ कर उचित निर्णय द्वारा इन्हें ग्रहण करना चाहिए। ऐसा उपदेश श्री तारण स्वामी का
SR No.009703
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages226
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy