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________________ ५४ ]= =तारण-वाणी संसार सरनि नहु दिटुं, नहु दिटुं समल पर्जाय सुभाव । न्यानं कमल सहावं, न्यान विन्यान ममल अन्मोयं ॥३०॥ सिद्ध न संसारी जीवों से, भव भव गोते खावें । अशुचि मलिन परिणतियें उनके पास न जाने पावें ॥ उनके उर में कमल-सदृश बस, केवलज्ञान विहंसता । शुद्ध ज्ञान, सत्-चित् सुख ही बस, उनके हिय में बसता ॥ जो जीव सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं वे संसार में गोता खाने के लिये फिर यहां कभी नहीं पाते, और न फिर उनके पास अशुचि या मलिन परिणतिये हो जाने पाती हैं। उनके अन्तरंग में तो कमल के समान बस केवलज्ञान ही मुस्कुराया करता है और वे तो केवल सत् चित और मानन्द की सम्पदा को प्राप्त कर अपने आप में ही संतुष्ट रहा करते हैं। जिन उत्तं सदहन, अप्पा परमप्प सुद्ध ममलं च। परमप्पा उवलद्धं, परम सुभावेन कम्म विलयन्ती ॥३१॥ 'विज्ञो ! अपना आत्म देव ही, है जग का परमेश्वर । बरसाते इस वाक्य सुधा को, तारण तरण जिनेश्वर ॥ जो जन, जिन-पच पर श्रद्धा कर, बनता आत्म पुजारी । कम काट, भवसागर तर वह, बनता मोक्ष-बिहारी ॥ हे विज्ञो ! अपना आत्मदेव ही संसार का एकमात्र परमेश्वर है, ऐसा संसार पार करने वाली जिनवाणी का कथन है। जो मनुष्य जिनवाणी के इस कथन पर श्रद्धापूर्वक प्रात्मा के पुजारो बनते हैं वे निश्चय से ही कर्म काटकर मुक्ति नगर को प्राप्त कर लेते हैं।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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