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________________ तारण-वाणी [४७ जिन वयनं च सहावं, जिनय मिथ्यात कषाय कम्मान । अप्पा सुद्धप्पानं, परमप्पा ममल दर्सए सुद्धं ॥१६॥ जिन-मुख सरसीरुह की है यह, ऐसी प्रिय जिनवाणी । मल, मिथ्यात्व, कषायें सबको, पल में हरती ज्ञानी ॥ आत्मतत्व ही शुद्ध तत्व है, जिन प्रभु कहते भाई । आत्म-मुकुर में ही बस तुमको, देंगे प्रभु दिखलाई । निश्चयनय का यह जो कुछ भी कथन है यह परम्परा से ही चला आया है, और इसके मूल में जिनवाणी का ही श्रोत झर झर कर रहा है। जिनवाणी का कथन है कि हे भाइयो ! संसार में केवल शुद्धात्मा ही एक विशुद्ध तत्त्व है और इसी तत्त्व के दर्पण में तुम्हें परमेश्वर की माधुरी छवि दृष्टिगोचर होगी। जिन दिष्टि इष्टि संसुद्धं, इस्टं संजोय विगत अनिष्ट । इस्टं च इस्ट रूव, ममल सहावेन कम्म मंषिपनं ॥१७॥ जिनवाणी की श्रद्धा हिय में, शुचि पावनता लाती । विरह अनिष्टों से, इष्टों से, यह संयोग कराती ॥ त्रिभुवन में सबसे मृदुतम बस, आत्म-मनन की प्याली । आत्म-मनन से ही टूटेगी, कर्म-कमठ की जाली । जिनवाणी की श्रद्धा हृदय में पूर्ण विशुद्धता का सृजन करती है, जिससे अनिष्ट पदार्थों से तो हमारा छुटकारा हो जाता है और इष्ट पदार्थ हमें बिना प्रयास किये ही प्राप्त हो जाते है। भगवान का यह वचन है कि त्रिभुवन में सबसे इष्ट वस्तु यदि कोई है तो वह है शुद्धात्मा की अर्चना और शुद्धात्मा की अर्चना में ही यह शक्ति विद्यमान है कि वह कर्म के लोह-बंधनों को जर्जर करके तोड़ सके ।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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