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________________ ४६ तारण-वाणी अप्पा पर पिच्छंतो, पर पर्जाव सल्य मुक्कं च । न्यान सहावं सुद्ध, चरनस्य अन्मोय संजुत्तं ॥१४॥ आत्म द्रव्य का पर स्वभाव है, पर द्रव्यों का पर है । इस मन में बहता जब ऐसा, ज्ञानमयी निर्झर है ॥ पर परिणतिये, शल्ये तब सब, सहसा ढह जाती हैं । निज स्वरूप की ही तब फिर फिर, झांकी दिखलाती हैं । आत्मद्रव्य का स्वभाव चैतन्य लक्षण कर विभूषित है, जबकि अनात्म-द्रव्यों का स्वभाव केवल जड़-चेतनाहीन है अर्थात आत्मा से सर्वथा भिन्न है। जिस समय अंतरंग में यह भेदज्ञान का निर्मर बहता है, तो संसार को सारी पर परिणतियें और शल्ये बालू की दीवार के समान अपने आप ढहने लगती हैं और फिर आत्मा के दर्पण में आत्मा को केवल अपनी और केवल अपनी ही विशुद्ध छबि दिखाई देती है। यदि कदाचित किसी कार्य कारण से उसमें पर-परिणति का रंचमात्र भी संचार दृष्टिगोचर होता है तो उसे वह तत्काल प्रथक् कर देता है। अवम्भं न चवन्तं, विकहा विनस्य विषय मुक्कं च । न्यान सुहाव सु समय, समय सहकार ममल अन्मोयं ॥१५॥ परमब्रह्म में जब चंचल मन, निश्चल हो रम जाता । तब न वहां पर अन्य; किन्तु, निज आत्मस्वरूप दिखाता ॥ चारों विकथा, व्यसन, विषय, उस क्षण छुप-से जाते हैं । परमब्रह्म में रत मन होता, मल सब धुल जाते हैं ॥ जब परम ब्रह्म परमात्मा के स्वरूप शुद्धात्मा में यह मन निश्चल होकर रम जाता है तब फिर उसकी दृष्टि में केवल एक और एक ही पदार्थ दृष्टिगोचर होता है और वह पदार्थ होता है उसका स्वयं का स्वरूप-आत्मस्वरूप। संसार की सारी व्यर्थ चर्चायें और विषय कषाय उस क्षण जैसे कहीं छिप से जाते हैं और आत्मा के साथ जितने कर्मबंध है लगता यह है कि जैसे वे उस समय धीरे धीरे धुल रहे हैं, खिर रहे हैं अर्थात् निर्जरा हो रहे हैं।
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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