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________________ तारण-वाणी एतत् सम्यक्त्वपूज्यस्य, पूजा पूज्य समाचरेत् । मुक्तिश्रियं पथं शुद्धं, व्यवहारनिश्चयशाश्वतं ॥३२॥ निर्मल कर मन वचन काय की, तीर्थ-स्वरूपिणि वैतरणी । करो आत्म की पूजा विज्ञो, यही एक भव -जल--तरणी ॥ शुद्ध आतमा का पूजन ही, पूजनीय है सुखदाई । युगल नयों से सिद्ध यही है, यही एक शिव--पथ भाई ।। अपने मन, वचन, काय की त्रियोग-त्रिवेणी पवित्र कर, हे विज्ञो ! तुम्हें उचित है कि तुम अपने शुद्धात्मा की ही निशिदिन पूजा करो, क्योंकि व्यवहार और निश्चय दोनों ही नय इस बात को एक म्बर से पुकार पुकार कर कहते हैं कि यदि संमार में मोक्ष ले जाना कोई पंथ है तो वह केवल अपनी ही आत्मा का पूजन, अपनी ही आत्मा का मनन और अपनी ही आत्मा का मननपूर्वक अर्चन करना है। ___ श्री तारन म्वामी कहते हैं कि हे भव्यो ! उपरोक्त सम्यक्त पूजा करो और तदनुसार ही आचरण करो। यही व्यवहार तथा निश्चय इन दोनों नयों से मुक्ति-पंथ का शुद्ध शाश्वन मार्ग है। ध्यान रहे, तदनुसार भाचरण के बिना मात्र पूजा केवल पूजा का आडम्बर है। । मालारोहण
SR No.009702
Book TitleTaranvani Samyakvichar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami
PublisherTaranswami
Publication Year
Total Pages64
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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