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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ८९ को नष्ट-भ्रष्ट करना प्रारंभ कर दिया है। उस पापी ने मकान तोड़ डाले हैं, धन-धान्य से पूर्ण ग्रामों को उजाड़ दिया है, वनों को उखाड़ डाला है, किला भी तोड़ डाला है। अधिक क्या कहँ! सर्वनाश ही कर डाला है। इसलिए राजा मृगांक बहुत ही पीड़ित हो अपने प्राणों की रक्षा हेतु किले के अन्दर ही रह रहा है। वहाँ की वर्तमान दशा की जानकारी मैंने आपको दे दी। आगे क्या होगा? उसे तो विशेष ज्ञानी ही जान सकते हैं। मृगांक राजा भी युद्ध के लिए उद्यत हैं, शीघ्र ही अपनी शक्ति अनुसार वे भी युद्ध करेंगे, क्योंकि क्षत्रियों का यह धर्म है कि जिस समय युद्ध में शत्रु का सामना हो, उस समय प्राणों की चिंता करना उचित नहीं है। महापुरुष के लिए प्राण नहीं, वरन् मान या यश ही सर्वस्व होता है। जो कोई शत्रु का बल देखे बिना ही, युद्ध किये बिना ही भाग जाता है, उसका यश मलिन हो जाता है। लेकिन जो युद्ध में प्राण तज देते हैं, मगर पीठ नहीं दिखाते, वे यशस्वी धन्य कहलाते हैं। हे राजन् ! मैं उन्हें वचन देकर आया हूँ। मुझे शीघ्र ही वहाँ वापिस पहुँचना है। मुझे बिलम्ब करना योग्य नहीं है। मैंने सर्व ही समाचार आपको सुना दिये। अब आप मुझे लौटने की आज्ञा दीजिए।" विद्याधर रत्नचूल के बल का वर्णन सुनकर राजा श्रेणिक एवं समस्त सभासद गंभीर होकर विचार करने लगे कि भूमिगोचरी राजा युद्ध में विद्याधरों का सामना किसप्रकार करेंगे? सभी को चिंतित देखकर जम्बूकुमार स्वयं ही रत्नचूल का सामना करने की आज्ञा माँगने लगे। तब समस्त सभासद स्वयं को अत्यन्त निर्भार एवं प्रमुदित अनुभव करने लगे, मानो समुद्र के मझधार से तिरकर किनारे आ गये हों, परन्तु कुमार का उद्यमवान एवं शौर्यपूर्ण वचन सुनकर विद्याधर एवं समस्त सभासद भी आश्चर्यचकित थे। विद्याधर भी युक्तिपूर्वक कहने लगा - ___ "हे बालक! तूने जो कहा, वही क्षत्रियों का उचित धर्म है, परन्तु यह कार्य असंभव है। इसमें तुम्हारी युक्ति नहीं चल सकती, क्योंकि केरल देश यहाँ से सैकड़ों योजन दूर है, वहाँ पहुँचना ही
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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