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________________ जैनधर्म की कहानियाँ यक्ष के पूर्वभव __ तब श्री गौतम महाराज बोले - "हे श्रेणिक! इसी नगर में एक धनदत्त नाम का श्रेष्ठि-पुत्र था, जो सौम्य-परिणामी एवं कुबेर समान धन-वैभव का स्वामी था। उसकी एक गोत्रमती नाम की सुन्दर पत्नी थी। उसके दो पुत्र थे। बड़े पुत्र का नाम अर्हद्दास एवं छोटे का नाम जिनदास था। अर्हद्दास तो अंतिम केवली के जनक होनेवाले हैं तथा स्वभाव से ही गंभीर एवं बुद्धिमान हैं, मगर जिनदास चंचलवृत्ति वाला था। तीव्र पापोदय से वह धर्म-कर्म से विमुख हो सप्त व्यसनों का सेवन करने लगा। __यह तो जगतप्रसिद्ध है कि एक जुआ के व्यसन में फँसकर युधिष्ठिर आदि पांडु-पुत्रों ने राज्य-भ्रष्ट होकर महान दुःखों को भोगा, तब फिर जो व्यक्ति पाँचों पापों एवं सातों व्यसनों का सेवन करेगा, उसे सर्व दुःख-संकटों का सामना करना पड़े, इसमें क्या आश्चर्य है ? वह तो भव-भव में दारुण दुःखों को पाता ही है। इस तरह नगर में उसके दुर्व्यसनों की चर्चा जोर-शोर से चल पड़ी। कितने ही नगरजन अपनी जाति को कलंक लगा जान उसे दुर्वचन भी कहने लगे, परंतु मति-भ्रष्ट जिनदास पर उनका कुछ भी असर नहीं पड़ा। वह तो पापकार्यों को और भी अधिक प्रवर्तन करने लगा। जिसके फलस्वरूप यह समय भी आ गया कि वह अपनी शक्ति से भी अधिक सोना-मुहर जुआ में हार गया। तब जीतने वाले जुआरी ने जिनदास को पकड़कर कहा - "जितना द्रव्य तू हारा है, वह मुझे शीघ्र दे, आज ही दे।" तब जिनदास अति आकुलित हो कहने लगा - "मेरे पास इतना धन है ही नहीं और इतना सुवर्ण तो मैं प्राणों के अंत होने तक भी नहीं दे सकूँगा।" तब जुआरी ने धमकाया - “या तो मैं मेरा पूरा स्वर्ण लूंगा नहीं तो तेरे प्राण लूँगा।" इस तरह परस्पर में लड़ाई-झगड़ा मच गया। उस जुआरी ने क्रोधावेश में अपनी तलवार निकालकर जिनदास को मारी, जिससे जिनदास मूर्छित हो गिर पड़ा। तब वह जुआरी जघन्य अपराध के
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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