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________________ जैनधर्म की कहानियाँ शाश्वत तीर्थधाम में भी आ गये।" वहाँ पहुँचकर सभी ने द्रव्य एवं भावशुद्धि के साथ पर्वतराज पर चढ़कर अनेक कूटों के दर्शन कर भावों में निर्मलता प्राप्त की एवं अणुव्रतों में भी दृढ़ता प्राप्त की। यात्रा करते हुए उन्होंने पर्वत पर अनेक वीतरागी संतों के दर्शन किये एवं उनसे धर्मामृत का पान किया। उसके उपरांत चतुर्विध संघ को आहार-दानादि देकर अपने मन में शांति का अनुभव किया। उसके बाद उन्होंने गिरनारजी सिद्धक्षेत्र के दर्शनों के लिए प्रयाण किया। इसप्रकार अनेक सिद्धक्षेत्र, तीर्थक्षेत्र आदि की वन्दना कर अपने घर के लिए प्रस्थान किया। वे चारों श्रेष्ठी पत्नियाँ आ तो रहीं थीं अपने घर के लिए, परन्तु उनका मन उन वीतरागी साधक संतों के साथ वीतरागी दुनिया में रहने को ललक रहा था। उनके अन्दर संसार, देह एवं भोगों के प्रति उदासीनता आ चुकी थी, फिर भी श्रेष्ठी की आज्ञा के अनुसार अपने घर को आते समय रास्ते में कभी बारह भावनाओं को भाती तो कभी गुरुवरों से सुने सात तत्त्वों के स्वरूप पर चर्चा करती र्थी। इसप्रकार वे आत्मभावना भाती हुई अपने घर को पहुँच गईं। घर आते ही देखती हैं कि सेठजी पुनः प्रचुर रोगों से ग्रसित हैं, इसलिए उनकी सेवा आदि करने लगी। उपचार बहुत कराया, परन्तु कुछ हाथ न लगा। अन्त में वे चारों रानियाँ सेठजी को णमोकार मंत्र आदि सुनाने लगी। मगर पापोदय से सेठजी को जिनवाणी नहीं सुहाई। वे रौद्र परिणामों से मरण को प्राप्त हो गये। मरण-उपरान्त सेठानियों ने उनका उचित क्रियाकर्म कराया। उसके बाद चारों का हृदय संसार से विरक्त हो गया। विरक्तचित्ता, कुशलबुद्धि की धारिकाओं ने अपनी अतुल सम्पत्ति को बेचकर एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया और फिर वन में जाकर शास्त्रानुसार विधि के साथ पूज्य गणीजी के पास आर्यिका के व्रत धारण कर लिये। बहुत समय तक अपने व्रतों का निर्दोष पालन करते हुए उन चारों आर्यिकाओं ने आयु के अंत में समाधिपूर्वक मरण किया और इस विद्युन्माली देव की नियोगिनी के रूप में स्वर्ग में उत्पन्न हुई हैं।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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