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________________ ६० जैनधर्म की कहानियाँ ___आहार-चर्या का समय अवलोक कर महाराजश्री पारणा हेतु वीतशोकापुरी में पधारे। राजमहल के निकट ही किसी सेठजी का घर था। वे सेठजी धर्मानुरागी थे, धर्माचरण में परायण थे। वे अपने द्वार पर द्वारापेक्षण के लिये अनेक साधर्मियों सहित खड़े थे, उनके नेत्र धर्मलाभ की भावना से श्री मुनिराज के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। इतने में ही दर-दर से ही श्री मुनिराज को देख उनका मन-मयूर आनंदित हो गया। उन्होंने नवधा भक्ति से मुनिराज का पडगाहन कर संयम के हेतुभूत शुद्ध प्रासुक आहारदान दिया। नवधा भक्ति पूर्वक दिये गए. शुद्ध आहार को मुनिवर ने शांतिपूर्वक ग्रहण किया। चारणऋद्धि के धारी मुनिराज के आहारदान के माहात्म्य से सेठ के आंगन में रत्नवृष्टि हुई। उसे देख दर्शकजन परस्पर में कहने लगे - “ये क्या हुआ, ये क्या हुआ ?" सभी आश्चर्यचकित हो गये, दर्शकजनों की आश्चर्यमयी बातें शिवकुमार के महल में सुनाई पड़ी, वह महल के ऊपर आकर आनंद से कौतूहलपूर्वक देखने लगा। वहाँ से ही मुनिवर के दर्शन पा चित्त में अति ही आश्चर्य हुआ, उसे ऐसा लगा कि मैंने कभी इन मुनिराज को देखा है। पूर्वभव के संस्कारवश उसके मन में स्नेह उमड़ रहा था, मन ही मन अद्भुत आह्लाद उछल रहा था, मगर उसका कारण अज्ञात था। उस संशय का निवारण करने हेतु वह मुनिराज के निकट जाकर प्रश्न पूछने का विचार कर ही रहा था कि उसे ही पूर्वभव का स्मरण हो आया। जिससे उसे ज्ञात हुआ - "मुनिराज हमारे पूर्वभव के बड़े भ्राता ही हैं। आप पहले भी ऐसे ही महान तपस्वी मुनिराज थे। आपने ही मेरे ऊपर नि:कारण करुणा करके मुझे सन्मार्ग में लगाया था। उस धर्म के प्रताप से ही मैं स्वर्ग में एवं चक्रवर्ती आदि के यहाँ पुण्योदय से सुख पाता आ रहा हूँ। ये ही मेरे सच्चे भाई हैं, जो इहलोक और परलोक को सुधारने वाले हैं।"
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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