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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र परम पवित्र वीतरागी जिनधर्म ही सारभूत है, जिसकी प्राप्ति होते ही इन्द्रियों का दमन, प्राणियों की रक्षा और कषायों का निग्रह सहज ही हो जाता है। इसलिए आत्मिक अव्याबाध सुख के लिए मुझे सदा इस जिनधर्म की ही उपासना करना चाहिए।" शास्त्रों में कई प्रसंगों पर देखते हैं कि व्यक्ति वैराग्य धारण करने के पहले मुनिवर से पूर्वभव पूछते हैं, क्योंकि उसे जानकर एक तो आत्मा का अनादि-निधन स्वरूप लक्ष में आता है और संयोगों की क्षणभंगुरता और आम्रवों की अशुचिता का यथार्थ बोध होते ही वह संसार से वैराग्य का कारण बन जाता है। कुशल प्रज्ञा के धनी सागरचन्द्र का मन अविलंब प्रचुर स्वसंवेदन को ललक उठा। उसने शीघ्र ही श्री त्रिगुप्तिसागर मुनिराज से प्रार्थना की - "हे प्रभो! मेरा मन संसार-परिभ्रमण के दुःखों से छूटना चाहता है, मैने इस संसार में आपके चरणों की शरण बिना वचनातीत दुःख भोगे हैं। प्रभु! अब मैं भी आप-समान आत्मिक आनंद के अमृत का पान करना चाहता हूँ, इसलिए हे गुरुवर! हे यतिवर! आप मुझे जैनेश्वरी दीक्षा देकर अतीन्द्रिय आनंद का दान दीजिए।" ज्ञान-वैराग्य की मूर्ति मुनिवर ने सागरचन्द्र को पात्र जानकर शाश्वत अव्याबाध सुख की दात्री जिनदीक्षा देकर अनुगृहीत किया। श्री सागरचन्द्रजी अब गुरुपद पंकज के भ्रमर बन अतीन्द्रिय आनन्द में लीन हो समता-रस का पान करने लगे। कंचन काँच बराबर जिनके, ज्यों रिपु त्यों हितकारी। महल मसान, मरण अरु जीवन, सम गरिमा अरु गारी॥ चौबीस प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर केशों का लोंच कर, द्वादश भावनाओं को भाते हुए, बारह प्रकार के तपों को तपने लगे। उनकी स्वरूप-लीनता को देख उपसर्ग-परीषह भी निःसत्व हो पलायमान हो गये। स्वरूप-साधना में मेरु समान अकंप मुनिवर को चारण-ऋद्धि प्राप्त हो गई तथा अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग के बल से द्वादशांग के ज्ञाता हो श्रुतकेवली बन गये। श्री सागरचन्द्र श्रुतकेवली धर्मामृत की वर्षा करते हुए तथा ईर्यापथ से गमन करते हुए एक दिन वीतशोकापुरी के क्न में पधारे।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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