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________________ २६ जैनधर्म की कहानियाँ है। इसका विस्तार प्रथम पीठ के विस्तार के चतुर्थ भाग प्रमाण होता है और तिगुणे विस्तार से कुछ अधिक इसकी परिधि होती है। सूर्यमण्डल सदृश गोल होती है। इस पीठ पर एक ३गंधकुटी होती है। यह गंधकुटी चामर, किंकणी, वन्दमाला एवं हारादिक से रमणीय, गोशीर, मलयचन्दन और कालागुरु समान धूपों की सुगंधसे व्याप्त, प्रज्वलित रत्नदीपों से युक्त तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं की पंक्तियों से संयुक्त होती है। इस गंधकुटी की चौड़ाई पचास धनुष प्रमाण है और ऊँचाई पचहत्तर धनुष प्रमाण है। इस गंधकुटी के मध्य पादपीठ सहित उत्तम स्फटिकमणियों से निर्मित एवं घन्टियों के समूह से रमणीय सिंहासन होता है। लोकालोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य सदृश भगवान अरहन्त देव उस सिंहासन पर आकाश में चार अंगुत ले अन्तराल से विराजमान रहते हैं। [नोट :- समवशरण का विस्तृत विवरण तिलोयपण्णति ग्रन्थ से तथा चित्रादि से सहित विवरण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग ४ से जानना चाहिये। जिनेन्द्रदेव चौंतीस अतिशय से युक्त होते हैं, जिनमें जन्म के दस अतिशय तो विदित हैं एवं ग्यारह केवलज्ञान के अतिशय होते हैं, जो इसप्रकार हैं . (१) अपने स्थान से चारों दिशाओं में एक सौ योजन पर्यंत सुभिक्षता, (२) आकाशगमन, (३) अहिंसा (हिंसा का अभाव), (४) स्वयं भोजन नहीं करना, (५) उपसर्ग का अभाव, (६) सबकी ओर मुख करके स्थित होना, (७) छाया नहीं पड़ना, (८) निर्निमेष दृष्टि (९) विद्याओं की ईशता, (१०) शरीर में नख-केश का न बढ़ना तथा (११) अठारह महा षा, सात सौ लधु भाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषाएँ हैं, उनमें तालु दाँत ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित एक साथ स्वभावत: अस्खलित तथा अनुपम दिव्यध्वनि द्वारा भव्यजनों को दिव्य उपदेश तीनों संध्या कालों में नव मुहर्तों तक निकलना, जो एक योजन पर्यन्त विस्तारित हो जाती है। इसके अतिरिक्त इन्द्र चक्रवर्ती आदि के आने पर असमय में भी अर्थात् मध्यरात्रि में भी दिव्यध्वनि खिर जाती है और तेरह अतिशय देवों कृत होते हैं।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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