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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र २५ के ऊपर बारह कोठों में से प्रत्येक कोठे के प्रवेश द्वार में एवं चारों वीथियों के सम्मुख सोलह-सोलह सोपान होते हैं। पीठ की परिधि का प्रमाण अपने-अपने विस्तार से तिगुणा होता है, यह पीठिका उत्तम रत्नों से निर्मित एवं अनुपम रमणीय शोभा से सम्पन्न होती है। चूड़ी सदृश गोल तथा नाना प्रकार के पूजा-द्रव्य एवं मंगलद्रव्यों सहित इस पीठ पर चारों दिशाओं में धर्मचक्र को सिर पर रखे हुए यक्षेन्द्र स्थित हैं। पूर्वोक्त गणधर देवादिक बारह गण उस पीठ पर चढ़कर और तीन प्रदक्षिणा देकर बार-बार जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं तथा सैकड़ों स्तुतियों द्वारा कीर्तन कर कर्मों की असंख्यात गुणश्रेणी रूप निर्जरा करके प्रसन्नचित्त होते हुए अपने-अपने कोठों में प्रवेश करते हैं अर्थात् अपने-अपने कोठों मे बैठ जाते हैं। [इस प्रथम पीठ के ऊपर आगे कोई भी देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि नहीं जाते। प्रथम पीठ के ऊपर २९द्वितीय पीठ होता है। उस स्वर्णमयी पीठ के ऊपर चढ़ने के लिए चारों दिशाओं में पाँच वर्ण के रत्नों से निर्मित समान आकार वाले आठ-आठ सोपान होते हैं। इस पीठ पर सिंह, बैल, कमल, चक्र, वस्त्र, माला, गरुड़ और हाथी इन चिह्नों से युक्त ध्वजाएँ शोभायमान हैं तथा अष्ट मंगलद्रव्य, नवनिधि, धूपघट आदि शोभित हैं। नोट :- ये धूपघट ऐसे नहीं होते कि उनमें अग्नि हो और उसमें धूप डालने से त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा होती हो। ये तो देवोपनीत हैं, इनमें सुगंध तो होती है, परन्तु हिंसा रंचमात्र भी नहीं होती, इसीप्रकार पुष्प भी देवोपनीत होते हैं, वनस्पतिकाय के नहीं हैं, जो उनके तोड़ने में स्थावर जीवों की और उनमें रहनेवाले त्रम जीवों की हिंसा हो। समवशरण में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि सौधर्म इन्द्र विक्रिया से चाहे जैसी रचना करवा सकता है, फिर भी हिंसा लेशमात्र भी नहीं होती। पुष्प, दीप और धूपघट का वर्णन पढ़कर हिंसाकारक क्रियाओं का प्रचार वीतरागदेव के मंदिर में नहीं होना चाहिए। ___इस द्वितीय पीठ के ऊपर विविध प्रकार के रत्नों से खचित ३°तृतीय पीठ होता है। उसकी ऊँचाई अपनी दूसरी पीठिका के सदृश होती
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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