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________________ १६५ श्री जम्बूस्वामी चरित्र श्री सुधर्म केवली का निर्वाण द्वादशांग वाणी के ज्ञाता श्री जम्बूस्वामी मुनिराज ने अठारह वर्षों तक उग्र-उग्र तप करते हुए इस भूतल को धर्मामृत के सिंचन से पवित्र किया। धन्य सुकाल और धन्य घड़ी, श्री सुधर्मस्वामी केवली प्रभु और श्री जम्बूस्वामी श्रुतकेवली मुनिराज! आहाहा... अनुपम साध्य-साधक आत्माओं का संगम !! भव्य जीवों को तो आत्म-साधना का सुअवसर मिल गया। केवली प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती थी, जिसे श्रवण कर भव्यों की पात्रता पकती थी। अनेक भव्यात्माओं ने धर्म धारण किया। पश्चात् माघ सुदी सप्तमी के दिन परम पूज्य सुधर्म प्रभु ने शेष चार अघातिया कर्मों को नष्ट कर विपुलाचल पर्वत (विपुलगिरी) से मुक्ति को प्राप्त किया। उसी समय स्वर्गों से इन्द्रों ने आकर सिद्ध भगवान की भावभक्ति पूर्वक स्तुति एवं पूजन की। निर्बाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय पुण्य-पाप-विहीन हैं। निश्चल निरालम्बन अमर पुनरागमन से हीन हैं। परम योगीराज श्री जम्बूस्वामी ने भी नानाप्रकार के गुणों द्वारा सिद्धप्रभु की स्तुति की। उनके अन्दर में प्रभु द्वारा सिद्धदशा प्राप्ति का हर्ष है, लेकिन केवलज्ञान सूर्य के वियोग का विरह भी है। ___ जम्बूस्वामी को केवलज्ञान तथा मोक्ष प्राप्ति परम तपोधन श्री जम्बूस्वामी ने भी अपने प्रचंड पौरुष से उसी दिन (माघ सुदी सप्तमी) जब आधा पहर दिन बाकी था, तभी केवलज्ञानरूपी मार्तंड को उदित कर लिया। सभी उपस्थित ने इसतरह जय, जयकार किया - णमो अरहंताणं! हे अनंतचतुष्टयवंत विभो ! हे मुक्तिकांता के प्रिय ! हे निर्वाणनाथ ! आपकी जय हो, जय हो।। तभी देवगण भी आकर केवलज्ञान प्राप्त प्रभु को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देते हुए प्रभु की जयजयकार करने लगे। उसके बाद उन्होंने अनुपम अष्ट द्रव्यों से प्रभु की पूजन स्तुति की। चौंतीस अतिशययुक्त अरु घन घातिकर्म विमुक्त हैं। अहंत श्री कैवल्य ज्ञानादिक परम गुण युक्त हैं।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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