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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र १६३ कभी श्मशान भूमि में, वन में, गुफा में, पर्वत के शिखर आदि एकान्त स्थान में वास करते हुए आत्माराधना करते हैं। यही विविक्त शय्याशन तप है। एकान्त स्थान में ध्यान और अध्ययन की निर्विघ्न साधना होती है। जो वसतिका उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों से रहित हो, वही मुनिराज के योग्य होती है। यही विविक्त शय्यासन तप है। (६) कायक्लेश :- तपस्वी मुनि दुःसह उपसर्ग को जीतने वाले होते हैं। आतापन, शीत, वात, पित्तादि, उष्ण पवन, शिला आदि, भूख-प्यासादि सभी प्रकार के उपसर्ग-परीषहों में समभाव रखते हैं। महीनों आहारादि न मिलने पर भी काया के प्रति निर्ममत्वपने वर्तते हैं। यही कायक्लेश तप है। अंतरंग तप भी छह प्रकार के होते हैं, जो इसप्रकार हैं :छह अंतरंग तप (७) प्रायश्चित्त :- प्रायः अर्थात् प्रकृष्ट चारित्र, वह जिसे हो उसे भी प्राय: कहते हैं अथवा प्रायः अर्थात् साधु लोग, उनका चित्त जिस काम में हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं, अत: जो आत्मा की विशुद्धि करता है, वह प्रायश्चित्त है। अथवा प्रायः अर्थात् अपराध, उसकी चित्त अर्थात् शुद्धि को प्रायश्चित्त कहते हैं। मन, वचन, काय, द्वारा दोष नहीं करते, नहीं कराते और करने वालों की अनुमोदना भी नहीं करते अर्थात् अपने व्रतों को पूर्णतया निर्दोष पालते हैं। यही प्रायश्चित्त तप है। (८) विनय :- दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार - इसतरह पाँच प्रकार के विनय के भेदों को एवं अनेक प्रकार से उत्तर विनय को मुनिराज पालते हैं। वे स्व के रत्नत्रय की विनय पूर्वक रत्नत्रय के धारकों की विनय करते हुए तप करते हैं। यही विनय तप है। (९) वैयावृत्य :- आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ - इन दस प्रकार के मुनियों का उपकार करना वैयावृत्य तप है। अपने रत्नत्रय की साधना करते
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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