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________________ १६२ जैनधर्म की कहानियाँ छह बहिरंग तप (१) अनशन (उपवास) :- अनशन का अर्थ अशन नहीं करना। अनशन स्वभावी आत्मा की साधना करनेवाले साधु को बुभुक्षा की बाधा होने पर भी चार प्रकार के निर्दोष आहार का त्याग करना अनशन तप है। इसे अनेषणा भी कहते हैं परन्तु अनेषणा और अनशन में मौलिक अन्तर है। एषणा की इच्छा न होने पर साधु अनशन की प्रतिज्ञा करता है, इसलिए अनेषणा साधन है और अनशन उसका फल है और अन् का अर्थ ईषत् भी है। इसलिए चार प्रकार के आहार में एक या दो या तीन प्रकार के आहार का त्याग करना भी अनेषणा तप है। शुद्ध बुद्ध स्वरूप आत्मा के उप अर्थात् समीप में बसने का नाम उपवास है - ऐसा तीर्थंकर गणधरदेव आदि ने कहा है। यही परमार्थ से अनशन तप है। (२) अवमौदर्य (ऊनोदर) :- इसीप्रकार अपने-अपने योग्य शद्ध प्रासुक आहार में से कम आहार करना अवमौदर्य तप है। साधु को आहार में अति आसक्ति नहीं होती, वे संयम के हेतु अल्प आहार लेकर अपनी आत्मसाधना में रत रहते हैं। यही अवमौदर्य तप है। (३) वृत्ति-परिसंख्यान :- वृत्ति की मर्यादा ही वृत्ति-परिसंख्यान तप है। मनिराज आहार चर्या को निकलने के पहले घर, गली, व्यक्ति आदि की मर्यादा कर लेते हैं कि इतने ही घर में जाऊँगा, इतनी ही गली में जाऊँगा और इसप्रकार के व्यक्ति से इतना ही आहार लूँगा इत्यादि। यही वृत्ति-परिसंख्यान तप है। (४) रस-परित्याग :- मुनिराज इन्द्रिय विषयों को विष के समान मानकर आत्म-साधना हेतु नीरस भोजन करते हैं। कभी तो छहों रसों का त्याग कर देते हैं, कभी पाँच-चार-तीन आदि रसों को त्याग कर भोजन करते हैं, कभी मात्र चावल या मात्र प्रासुक जल ही का भोजन करके इच्छा का निरोध करते हैं। यही रस-परित्याग तप है। (५) विविक्त शय्यासन :- यतीश्वर राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले आसन, शय्या एवं इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होने के कारण
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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