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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र में लोक की चिंता कैसी ? मुझे उसकी चिंता नहीं है । " १२९ अरे ! इस पर भी लोक हँसी करे तो तब अत्यन्त विनम्रतापूर्वक विनयश्री बोली " हे नाथ! आपका कहना सर्वथा सुयोग्य ही है, परन्तु यदि हम ब्रह्मचर्य धारण कर गृहस्थी में रहें एवं सदा तत्त्व- अध्ययन कर आत्म-अभ्यास करें, अणुव्रतरूप रत्नत्रय को धारण कर हम भाई-बहन जैसे रहकर आत्महित करें, तब तो आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आपके मार्ग में हम बाधक भी नहीं होंगे, अब तो आप हम पर प्रसन्न होइये । " कुमार बोले " हे कोमलचित्ते ! हे आयें ! निश्चित ही तुम्हारे परिणाम अध्यात्मरस में भीगे हैं, तुम्हें आत्महित की तीव्र अभिलाषा भासित होती है। तुम्हारे ये मंगलमयी परिणाम अवश्य ही फलीभूत हों । परन्तु बहाना कोई भी हो, कारण कोई भी क्यों न लिया जाय; वह कारण, वह युक्ति, वह न्याय और वे समस्त तर्क अन्याय हैं; जो मुझे गृहस्थी में रुकने के लिए प्रेरित करें। तुम ऐसा अन्याय मेरे साथ क्यों कर रही हो, तुम तो पत्नी हो, तुम्हें तो पति को पतन से बचाकर पति के उत्थान एवं हित की रक्षा करना चाहिए। तुम्हीं कहो, मैं जितने काल तक गृहस्थ जीवन में रहूँगा, उतने काल तक मैं प्रचुर स्वसंवेदन से वंचित रहूँगा या नहीं ? रहूँगा, अवश्य रहूँगा । पूज्य पद की पवित्र अनुभूतियों से वंचित रहूँगा । प्रत्येक क्षण होनेवाली असंख्यात गुणी निर्जरा से भी मैं वंचित रहूँगा । आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद के निरंतराय - निराबाध भोग से मैं वंचित रहूँगा । पूज्य गुरुवर द्वारा प्रदत्त ज्ञानाराधना से मैं वंचित रहूँगा । पंचाचार में परायणता से मैं वंचित रहूँगा । क्या तुम्हें मेरे आत्मीय दुःख को देखकर प्रसन्नता होगी ? क्या तुम्हें प्रमोद होगा ? क्या तुम्हारा यही कर्तव्य है ? क्या तुम मुझे उदास, घुटता हुआ देख सकोगी ? क्या तुम मुझे मेरा आत्मिक इन्द्रियातीत आनंद दे सकोगी ? क्या तुम मुझे क्षण-क्षण में गृहस्थी की आकुलता - व्याकुलता में झुलसता हुआ मुझे देख सकोगी ?" तब समस्त रानियाँ तत्काल ही बोलीं नाथ ! हम आपके आत्म सुख में बाधक "नहीं, कदापि नहीं बनकर तो जीवित रहना -
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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