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________________ १२८ जैनधर्म की कहानियाँ एवं भरण-पोषण का वचन दिया है। अत: हे स्वामिन् ! यह आपका पवित्र कर्तव्य है कि आप माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा करते हुए गृहस्थ-धर्म का पालन करें एवं आत्महित भी करें। अन्यथा यदि आप इतने शीघ्र ही वचनों का उल्लंघन करेंगे तो लोग क्या कहेंगे? क्या हम इतने अभागे हैं कि आपके धर्म-वात्सल्य के पात्र भी न बन सकें? क्या आपको हमारे ऊपर किंचित् भी करुणा नहीं है? क्या आपका हमारे प्रति किंचित् भी कर्तव्य नहीं है ? हे स्वामिन् ! कृपया हमारी ओर देखिए एवं गंभीरतापूर्वक विचार कीजिए। आप तो चरम-शरीरी हैं, किन्तु हमें तो इस भव से मुक्ति नहीं है। (आँखों में आँसू भरकर) अत: हे नाथ! अब आप ही बताइये कि हम क्या करें ?" कुमार बोले - “हे आर्ये! तुम्हारे परिणाम व्यर्थ ही खेद-खिन्न हो रहे हैं, तुम व्यर्थ ही व्याकुल मत होओ। अपनी विरक्ति को वृथा ही मत छिपाओ। शांत होओ, शांत होओ, तत्त्व का विचार करो, तुम तत्त्वनिपुण भी हो। हे भद्रे! जब मैंने तुम्हें सात-सात वचन दिये थे, तब गृहस्थाचार्य ने जो मंत्र पढ़े थे सो उनका आशय ऐसा था कि मुनिदीक्षा अथवा समाधिमरण के परिणाम उत्पन्न नहीं होने तक मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। अब मेरा जैनेश्वरी दीक्षा धारण करने का परिणाम हुआ है, अत: नीति के अनुसार भी अब मैं तुम्हारे वचनों से मुक्त हुआ हूँ और लोक-नीति एवं आगम की मर्यादा का भी मैंने उल्लंघन नहीं किया है। तथा अपने कर्तव्य से भी मैं भलीभाँति परिचित हूँ। लोक में आत्महित से बढ़कर और कोई कर्तव्य नहीं है। भद्रे!, विषय-भोग वास्तव में कर्तव्य नहीं हैं, परन्तु एक अपराध की सजा है और आत्मानुभव नहीं होना ही अपराध है। गृहस्थ जीवन अत्यन्त पराधीनता. का नाम है, अत्यन्त दु:ख का नाम है। ऐसे जंजाल में फँसकर मैं भव नहीं बढ़ाना चाहता। यह भव व्यर्थ गवाना भी नहीं है और यह भव जिस-तिस प्रकार काटना भी नहीं है। बस, यह भव तो मुझे अनंत भवों का अभाव करने को मिला है। इसमें लोक-हँसी का कुछ कारण भी नहीं है, अत: लोक भी हँसी क्यों करेंगे? और फिर त्रिलोक्य-पूज्य मार्ग अपनाने
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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