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________________ ११६ जैनधर्म की कहानियाँ कभी तीव्रता, कभी रागरूप तो कभी वीतरागरूप परिणमन होता है। विवेकीजन इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग रूप परिणामों में हर्ष-विषाद नहीं करते, क्योंकि एक क्षण पहले का पापी दूसरे क्षण में धर्मात्मा हो जाता है। इसलिए ....." ___ पद्मश्री - “हे तात! अकस्मात् इसप्रकार वस्तुस्वरूप के प्रतिपादन करने का क्या आशय है? अभी कोई स्वाध्याय या तत्त्वचर्चा का प्रसंग तो है नहीं? क्या कुमार ने दूत के साथ कोई वीतरागी सिद्धान्तों के रहस्य का संदेश भेजा है? मैं आपके प्रतिबोधन का मर्म नहीं समझ पा रही हूँ।" धनदत्त - "हे पुत्रियों! तुम्हारी शंका के निवारणार्थ ही मुझे बरबस कहना पड़ रहा है कि जम्बूकुमार ने अपने माता-पिता आदि के द्वारा अनेक प्रकार से समझाये जाने पर भी संसार में फँसना योग्य नहीं समझा है और वीतरागता के पथ पर चलने का निर्णय ले लिया है। इसलिये हे प्रिय पुत्रियों! तुम इस मंगलगर्भित अमंगल समाचार को सुनकर व्यथित न होओ। हम सभी जन पुनः कुमार से मिलेंगे।" इतना सुनते ही पुत्री की माँ पद्मावती रुदन करने लगी। सागरदत्त - "हे प्रिये पद्मावती! तुम अपना दिल छोटा न करो। तुम तो माता हो। तुम्हें धीरज से काम लेना चाहिए एवं पुत्रियों को भी धैर्य बँधाना चाहिए। इस जगत में बहुत सुयोग्य लड़के हैं। हम दूसरे सुन्दर सुयोग्य वरों के साथ अपनी पुत्रियों का धूमधाम से विवाह करेंगे।" __पश्चात् चारों श्रेष्ठियों एवं उनकी पत्नियों ने अपनी चारों कन्याओं को संबोधित किया - "हे प्रिय पुत्रियों ! तुम लोग चिंतित मत होओ। हम लोग प्रथम प्रयास तो कुमार को ही मनाने का करते हैं। हमें विश्वास है कि जम्बूकुमार मान जायेंगे। यदि उन्होंने दृढ़ निर्णय ले ही लिया होगा तो हम लोग और दूसरे सुन्दर सुयोग्य वर के साथ तुम्हारा विवाह कर देंगे। अभी तो अपना कुछ बिगड़ा ही नहीं है।" पिता के इन वचनों को सुनते ही चारों कन्यायें एकदम बोल
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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