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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ११३ ऐसे वज्रपात-कारी वचन अकस्मात और अप्रासंगिक क्यों कह रहे हो? क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा भंग की हैं? या तुमसे कुछ कठोर वचन कहे है? आखिर ऐसा हुआ क्या है, जो विजयश्री की खुशी के बदले सीधे ही जिन-दीक्षा लेने की ठान ली?" तब कमार ने श्री सुधर्माचार्य गुरुवर के मुख से सुना हआ अपने पूर्वभव का सम्पूर्ण वृत्तांत माता को कह सुनाया। पुत्र के पूर्वजन्म की चर्चा सुनकर माता जिनमती के अन्दर भी धर्मबुद्धि जाग उठी। उसने अपने चित्त को शांत करके सेठ अर्हद्दास के पास जाकर सम्पूर्ण समाचार सुना दिये - "हे नाथ! यह जम्बूकुमार चरमशरीरी है, यह जिनदीक्षा लेना चाहता है।" लेकिन सेठजी यह समाचार सुनते ही मूर्च्छित हो गये। कुमारादि सभी जनों ने शीतल जल एवं पवनादि के उपचार द्वारा सेठजी की मूर्छा दूर की, परन्तु तीव्र मोहोदय से वे हाहाकार के शब्द कहकर विलाप करने लगे। उनके आकुलतापूर्ण विलाप ने सभी के हृदयों को द्रवित कर दिया, परन्तु वैरागी जम्बूकुमार पर उसका कुछ भी असर नहीं पड़ा। पिता अर्हद्दास ने कुमार से कहा - "बेटा! अभी तुम छोटे बालक हो। तुम जिनदीक्षा के स्वरूप को नहीं जानते हो। जंगल में वाघ, सिंह आदि क्रूर पशुओं के बीच में कंकड़ एवं कांटों से व्याप्त भूमि में रहना होता है। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि अनेक प्रकार के उपसर्ग-परीषहों को तुम्हारा यह कोमल शरीर सह नहीं सकेगा, नग्न दिगम्बर रहना, मनुष्य, तिर्यंच एवं देवों द्वारा किये गये अनेक उपसर्गों को बड़ी धीरता-वीरता पूर्वक सहन करना; ये तुमने तो अभी कुछ देखे ही नहीं, तुम इतने कष्ट कैसे सहोगे? जरा शांति से सभी बातों का विचार करो। पुत्र! पूज्य आचार्यों ने तो प्रथम सम्यग्दर्शन सहित देशव्रतों को पालने की आज्ञा दी है। जब देशव्रतों में दृढ़ता आ जावे, तब भाव सहित महाव्रतों को अंगीकार करना - ऐसा मार्ग बतलाया है। अभी तुम देशव्रतों को ही नहीं पालते और महाव्रतों को लेने तैयार हो गये। ये तो उचित नहीं है पुत्र!" ___जम्बूकुमार पिताजी के वचनों को शांतिपूर्वक सुन रहे हैं और सोच रहे हैं कि जगत को जिनदीक्षा धारण करना इस पर्या में
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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