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________________ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ९७ वचन नहीं बोलना चाहिए। तेरे राजा मृगांक या राजा श्रेणिक कोई भी युद्ध में मेरा सामना नहीं कर सकता। जानता नहीं क्या? हम विद्याधर हैं और वे भूमिगोचरी हैं। वे हमारे सामने क्या सामर्थ्य रखते हैं ? जा, अधिक मत बोल, मौन रह। मेरे साथ जिसे युद्ध करना हो, वह आ जावे मेरे सामने।" - इतना कहकर रत्नचूल क्षोभ को छोड़कर शांति से बैठ गया। जम्बूकुमार का पुनः संबोधन परम पवित्र वीतरागी धर्म के धारक, वज्रवृषभनाराच संहनन के धारी, प्रचंड पराक्रमी, अत्यन्त निर्भयी जम्बूकुमार मेघध्वनि समान गंभीर वाणी से कहने लगे - “हे रत्नचूल विद्याधर! तेरा यह सम्पूर्ण कथन तेरे अभिमान को पुष्ट करनेवाला है, लेकिन अनुमानादि से बाधित है। देखो, यद्यपि रावण विद्याधर था, तथापि उसे भूमिगोचरी रामचन्द्रजी ने युद्ध करके अपने ही बल से मार डाला। यद्यपि काक भी आकाश में उड़ता है, परन्तु जब वह बाणों से छिद जाता है, तब भूमि पर ही आ गिरता है।" कुमार के ऐसे वचन सुनकर रत्नचूल के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने अपने हाथ में तलवार लेकर अपने आठ हजार योद्धाओं को चीखते हुए आज्ञा दी - "इस दूत को मार डालो! टुकड़े-टुकड़े कर डालो !!" ___ जम्बूकुमार के बल से अनभिज्ञ सभी योद्धाओं ने अपने-अपने हथियारों का प्रहार जम्बूकुमार पर करना प्रारंभ कर दिया। उन सभी के बीच अस्त्र-शस्त्र रहित अकेले जम्बूकुमार ने अपनी भुजाओं एवं पैरों के प्रहार से कितनों को ही क्षण मात्र में यमपुर पहुँचा दिया। तभी व्योमगति विद्याधर ने अपना तीक्ष्ण खड्ग कुमार को अर्पण करते हुए कहा - "आप विमान पर चढ़ जाइये!" । लेकिन कुमार ने उसकी बात पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया। वह योद्धाओं के साथ लड़ने में अपने शरीर को तृण के समान समझता था। जैसे ब्रह्मचारी के लिए स्त्री तृण समान होती है, उसीप्रकार योद्धा को मरण भी तृण के समान होता है।
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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