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________________ [१६१] (५) नव्यनीरागताके सिकर्मदम (६) य(य)स्य नव्यैर्नजे नाम संपउमं । (s) नीरसं पापहं स्मयते सत्तमं (1) तिग्ममोहार्ति विश्वंसतायाघ्रमं ॥ ॥ (ए) लब्धप्रमोदजनकादरसोरूपधामं (१७) तापाधिकप्रमदसागरमस्तकामं । (११) घंटारवप्रकटिताछुतकोतिराम (१५) नदत्रराजिस्जना(नी)शनताभिरामं ॥ ३ ॥ (१३) घंटापथप्रथितकीर्तिरमोपयामं (१४) नागाधिपः परमनक्तिवशादसवामं । (१५) गंजीरधारसमतामयमाजगाम (१६) मं(म)र्त्यानतं नमत तं जिनपंक्तिकामं ॥४॥ (१७) संसारकांतारमपास्यनाम (१७) कट्याणमालास्पदमस्तशामं । (१९) लानाय वज्राम तवाविराम (५७) लोजानिनूतः श्रितरागधूमं ॥ ५॥ (११) कर्मणां राशिरस्तकिलोकोद्गम (३२) संसृतेः कारणं मे जिनेशावमं । (२३) पूर्णपुरयाढ्य दुःखं विधत्तेऽतिमं (२४) एण(न)क्षमस्त्वां बिना कोऽपि तं दुर्गमं ॥६॥ (२५) कर्मणं निईितुमन्योऽसमः (२६) य(य)कराट्पूज्य तेनोच्यते निर्ममं । (२७) श्रीपते तं जहि जाग् विधायोद्यम (२७) दानशौंडाव मे देहि शरिप्रमं ॥ ७ ॥ (श्ए) यस्य कृशजलधेर्विश्राम (३०) कंगताशुसुनटसंग्राम । हुआ है उसके सो परियों में पञ्चीस श्लोकों के सौ वरण हैं और केंद्र में 'म:' जो अक्षर है वही ये सय चरणों के अंत का अक्षर है। शब्दों के आदि अक्षर लेकर पद बनाना उतना कठिन नहीं हैं जितना अंत का अक्षर मिलाना कष्ट साध्य है । श्री जेसलमेर-निवासो, ओसवाल कुल भूषण, खरतरगच्छोय संघवी थाहरूसाह भणशाली ने सं० १६७५ में यह पार्श्वनाथ जोके मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। उसो उत्सव पर आये हुये साधु मंडलियों में से सहजकीर्ति गणि नामक किसी विद्वान को यह कीर्ति है। यह लेख G. O. S. No. 21 के परिशिष्ट के पृ. ७१-७१ नं. ६ में प्रथम प्रकाशित हुआ है। पाठ में कुछ अशुद्धियां है। यहां शुद्ध पाठ प्रकाशित करने के लिये यथासाध्य प्रयास किया गया है। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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