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________________ १६६ प्राचीनलिपिमाला. के शिलालेख में पहिले पहिल'म संवत के साथ विक्रम का नाम जुड़ा हमा मिलता है. उसके पहिले के अब तक के मिले हुए लेखों में विक्रम का नाम तो नहीं मिलता किंतु संवत् नीचे लिखे अनुसार भिन्न भिन्न रीति से दिया हुआ मिलता है (१) मंदसौर से मिले हुए नरवर्मन् के समय के लेख में-'श्रीमालवगणाम्नासे प्रशस्ते कृतसंझिने [0] एकषष्ट्यधिक प्रासे समाशतचतुष्टये [1] प्रावृक्कादिका)ले शुभे प्रासे', अर्थात् 'मालवगण के प्रचलित किये हुए प्रशस्त कृत संज्ञावाले ४६१ वें वर्ष के लगने पर वर्षा ऋतु में', जेप्रम् (अजमेर) में रक्खे हुए नगरी (मध्यमिका, उदयपुर राज्य में) के शिलालेख में-कृतेषु चतुपु घर्षशनेष्वे काशीत्युत्तरेष्वस्यां मालवपूर्वायां [४०]:०१ कार्तिक शुक्लपञ्चम्याम्', अर्थात 'कृत [नामक] ४८१ वि घर्ष (संवत) में इस मालवपूर्वी कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन' (1) मंदसौर से मिले हुए कुमारगुप्त ( प्रथम ) के समय के शिलालेख में-'मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये । विनवत्यधिकेन्दान म्रि(मोती सेव्यधनस्तने ॥ सहस्यमासशुक्लस्य परास्तेहि त्रयोदशे, अर्थात् 'मालवों के गा (जाति) की स्थिति से ४६३ वर्ष बीतने पर पौष राषत १३ को. (४) मंदसौर से मिले हुए यशोधर्मन् (विशुवर्द्वन् । के समय के शिलालेख में-'पञ्चसु शतेषु शरद यातवेकानवतिसहितेषु । मालवगणस्थितिवशात्कालज्ञानाय लिखितेषु ५ अर्थात् 'मालव गण (जाति)की स्थिति के वश से कालज्ञान के लिये रिखे हए ५८९ वर्षों के बीतने पर'. (५) कोटा के पास के कस्वा के शिव मंदिर में लगे हए शिलालेख में-'संवत्सरशतोतः सपंचनवत्यरर्गलैः[समभिर्मालवेशानां, अर्थात 'मालवा या मालव जाति के राजाओं (राजा) के ७६५ वर्ष बीतने पर' इन सब अबतरणों से यही पाया जाता है कि (अ) मालव गण (जाति) अथवा मालव (मालवा ) के राज्य या राजा की स्वतंत्र स्थापना के समय से इस संवत् का प्रारंभ होता था. (मा) अषतरण १ और २ में दिये हुए वर्षों की संझा'कृत' भी थी. १. घिनिकि गांव ( काठिाबाद) से मिले हुए दानपत्र में विक्रम संवत् ७६४ कार्तिक कृष्णा अमावास्या. आदि. त्यवार, ज्येष्ठा नक्षत्र और सूर्यग्रहया लिखा है ( जि. १२, पृ. १५५ ) परंतु उन तिथि को आदित्यवार, ज्येष्ठा नक्षत्र भीर सूर्यग्रहण न होने, और उसकी लिपि इतनी प्राचीन न होने से डॉ. प्लीट और कीलहॉर्न ने उसको जाली ठहराया है. .. वसु नब भिटो वर्षा गतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य [1] वशाखस्य सिताया(यां) रविवारयुतद्वितीयायां (.एँ; जि.१६, पृ. ३५.) ३. '.: जि. १२, पृ. ३२०. . फ्लो ; गु. पृ. ३. . पली; गु. पृ. १५४. . .५ जि. १६, पृ. ५६. ७. मैनालगढ़ ( उदयपुर राज्य में ) से मिले हुए अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज ( पृथ्वीभव) के समय के लेख के संवत् १२२६ को मालवा के राजा का संवत कहा है (मालवेरागतवत्सर(रे) शतैः द्वादशेश्च प्राइविंशपूर्वकः) (ज.प. सो: बंगा. जि. ५५, भाग १. पृ.४६). ८. संवत के साथ 'कृत शब्द अब ना केवल ४ शिलालेखों में मिला है. डॉ. फ्लीट ने इसका अर्थ 'गत' अर्थात् गुजरे हुशवर्ष] अनुमान किया था परंतु गंगधार के शिलालेख में 'कृतेषु' और 'यातेषुबात) दानो शन्न होने से उस अनमानको ठीकन माना. मंदसौर के लेख में 'कृतसंहिते' लिखा है (देखो. ऊपर अवतरण ) उसमें ‘कृत' वर्ष का नाम होना पाया जाता है. जैस प्राचीन लेखो में १२ वर्ष ( महाचैत्रादि ) और ६० वर्ष ( प्रभवादि) के दो मिन भिन्न याई स्मन्यमान (चक) मिलते है वैसे ही वैदिक काल में वर्षे का एक युगमान (चक्र) भी था (देखो, आर. शामशाररीका गवामयन'. ३, (३८). इस युगमान के वर्षों के नाम वैदिक काल के जुए के पासो की नाई (देखो, ऊपर पृ. और इसी के टिप्पण३-५) कृत. वेता, द्वापर और का , और उनकी रीति के विषय में यह अनुमान होता है कि जिस गत वर्ष में ४ का माग देने से कुछ म थवे उस वर्ष की हत',३ बच्चे उसकी 'नेता', २ पचे उसको 'वापर' और । यो उमको 'कनि' संज्ञाहेती हो. जैनो के 'भगवतीसूत्र' में युगमान का पेसा ही उल्लेख मिलता है. इसमें लिखा कि गुम पार है यजुम्म (रुत), रोज (ता), वावरतुन (पर) और लिग (कलि) जिस संस्था Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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